‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 198 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 198 वी कड़ी ….

           षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’

    अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’

 परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।

श्लोक  (२१,२२)

हैं द्वार नरक के तीन पार्थ, वे काम, क्रोध अरु लोभ रहे,

आत्मा का करते अध: पतन, ये पातक शत्रु विशेष रहे ।

इनसे बचते हैं बुद्धिमान, कर देते इनका पूर्ण त्याग,

इनसे सम्बंध न रखते वे, इनसे रखते हैं वे विराग ।

 

चोरी करता, व्यभिचार करे, लुक छिपकर कर्म करे अपने,

जो रहा काम के वशीभूत, रचता है कितने ही सपने ।

मन के विपरीत हुआ कुछ तो, उत्तेजित होता, क्रोध करे,

हिंसा प्रतिहिंसा अपनाता, आवेश उसे बेचैन करे

 

सुख-साधन पाने, धन पाने, जागा करती मन में इच्छा,

अति तीव्र हुई वह लोभ बने, लोभी न उचित अनुचित गिनता ।

छल कपट करे विश्वासघात, वह तरह-तरह के पाप करे,

पापों का फल तामिस्त्र रहा, तामिस्त्र नाम का नरक मिले ।

 

कामी क्रोधी लोभी का मन, अविकारी कभी न रह पाए,

गिरना प्रारंभ हुआ जिस क्षण, वह फिर बस गिरता ही जाए।

क्रियाएँ दूषित हो जातीं, सन्मति पर पर्दा पड़ जाता,

शुचिता, सुख, शांति नष्ट होती, दुखपूरित जीवन हो जाता ।

 

आत्मा को पतित बना देते, ये काम, क्रोध अरु लोभ तीन,

ये द्वार नरक के कहे गये, ये कर देते हैं, मति मलीन ।

यह उचित मनुज को तीनों का, वह रह सचेत कर चले त्याग,

सद्गुण कर देती जला भस्म, इन तीनों से जो उठे आग ।

 

कारण ये रहे अधोगति के,  आत्मा के नाशक कहलाते,

ये रहे पूर्ण विष के समान, जो नसनाड़ी में भिद जाते ।

आहार विहार बिगड़ जाता, तन भी निर्बल हो जाता है,

दूषित हो जाता कर्म क्षेत्र, मन अच्छा सोच न पाता है।

 

ज्ञानी तीनों का त्याग करे, निर्मल रखता अपनी मति को,

वह मोहपाश का त्याग करे, लेता सुधार अपनी गति को ।

वह मुक्त हुआ इन दोषों से, अपना हित साधन करता है,

पाता है परमधाम अर्जुन, वह मुझे प्राप्त हो जाता है।

 

तामिस्त्र नरक के तमोद्वार, ये काम, क्रोध, अरु, लोभ तीन,

इनसे ही करते हैं प्रवेश, इनसे बाहर आते प्रवीण ।

हो तमोद्वार से मुक्त मनुज, अपना कल्याण साध लेता,

वह छूट आसुरी बन्धन से, आनंद लोक को पा लेता ।

 

मानव जीवन के शत्रु प्रबल, ये काम, क्रोध अरु लोभ तीन,

इनके विकार से मुक्त पुरुष, होने पाता है आत्मलीन ।

अनुरुप स्वयं के साधन कर, करता स्वरुप साक्षात्कार,

पा जाता परम धाम अर्जुन, हो जाता जो जन निर्विकार ।

 

जो अन्धकार के मार्ग तजे, जो तम के गुण से रहे मुक्त,

जो रज सत का कर अवलम्बन, कर चले साधना तेजयुक्त ।

वह निज को पा लेता अर्जुन, जीवन को सुखी बना लेता,

संसार-सिन्धु में वह अपनी, नौका को पार लगा लेता ।

 

करते जो पतित कर्म उनका, बढ़कर वह खुद उच्छेद करे,

आसुरी सम्पदा से विमुक्त, वह अपना खुद उद्धार करे ।

कल्याण करे सम्पादित वह, कर सदाचार का अवलम्बन,

जाग्रत कर ऊर्ध्व चेतना को, बदले वह नारकीय जीवन ।

 

आसुरी सम्पदा को तजकर, दैवी का अर्जन जो करता,

निष्काम भाव से फिर उसका, जो सात्विक सेवन कर चलता।

जीवन को सुखमय कर लेता, परमात्मा को पा जाता है,

वह देवलोक का अधिकारी, फिर नहीं नरक में जाता है

 

जीवित रहने के लिए भला, क्या कोई पीता कालकूट?

पत्थर को बाँध पेट पर क्या, तैराक तैर पाता अकूत?

आखिर कितना उड़ पायेगा, पैरों में हो सांकल जिसके?

कितनी सांसे गिन पायेगा, हों प्रबल दोष तीनों जिसके? । क्रमशः….