‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 205 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 205 वी कड़ी ….

       सप्तदशोऽध्यायः – ‘श्रद्धात्रय विभाग योग’ अध्याय सत्रह – ‘श्रद्धा तत्व पर लागू किये गए तीनो गुण’

श्लोक  (७)

गुण प्रकृति भेद से भोजन भी होता है अलग-अलग सबका,

यह तीन तरह का होता है, जैसी रुचि वैसा वह स्चता ।

वैसे ही यज्ञ दान तप के, होते हैं तीन भेद अर्जुन,

आश्रित गुण के आचार रहे, उनके रहस्य को भी अब सुन।

 

भोजन का बड़ा प्रभाव रहा, भोजन से निर्मित होता मन,

मन वैसा ही बन जाता है, जैसा करता मनुष्य भोजन ।

हर अन्न प्रकृति अपनी रखता, कफ, वात, पित्त उत्पन्न करे

सम रखे शक्ति को मानव की, अथवा विकार बनकर उभरे ।

 

सबको प्रिय होता है भोजन, जीवन का वह आधार रहे,

बल दे,शरीर को करे पुष्ट, वह अन्तर्मन की प्रकृति गढ़े ।

उत्पन्न करे रुचियाँ अनेक, भावित उससे होवें विचार,

गुण क्षीण-प्रबल होते रहते, जन के सेवित अन्नानुसार ।

 

आहार किसे कैसा प्रिय है, इससे पहिचान गुणों की हो,

पहिचान मनुज की हो इससे, पहिचान प्रकृति की इससे हो ।

आहार तामसी रहा त्याज्य, सात्विक होता है सर्वोत्तम,

विकसित अपने में करता है, सात्विक आहारी, सात्विक गुण ।

श्लोक  (८)

जो आयु बढ़ाने वाले हों, हो अन्तःकरण शुद्ध जिससे,

बलवृद्धि करें,सुख दायक जो, आरोग्य प्राप्त होवे जिससे ।

रसमय, जो स्निग्ध,सुस्थिर जो, हृदय को जो उमगित करते,

आहार घटक हैं सात्विक ये, सात्विक जन को जो प्रिय लगते।

 

जो भोजन स्वास्थ्य बढ़ाता हो, बल, प्राणशक्ति की वृद्धि करे,

जीवन दे, दे आनंद खुशी जो, मधुर स्निग्ध रुचिपूर्ण रहे।

पोषक हों जिसके तत्व सभी, रस से परिपूर्ण कठोर न हो,

आहार रहा सात्विक ऐसा, सात्विक लोगों को जो प्रिय हो।

 

रसयुक्त मधुर फल पके हुए, जिनका बेढब आकार न हो,

छूने में कोमल घुलनशील, रस जिनका अधिक कठोर न हो।

आ गए न हों काले धब्बे, कम मात्रा में तृप्त करें,

स्वादिष्ट लगें वे खाने में, हितकर उनके परिणाम रहें ।

 

दिन-दिन जीवन की शक्ति बढ़े, सात्विक गुण की होती बढ़ती,

मेघों के वर्षाजल से ज्यों सूखी सरिता जल से भरती ।

तन, मन दोनों हो चलें पुष्ट, रोगों से मुक्त शरीर रहे,

मन में आयें अच्छे विचार, जन धीर- वीर गंभीर रहे ।