सप्तदशोऽध्यायः – ‘श्रद्धात्रय विभाग योग’ अध्याय सत्रह – ‘श्रद्धा तत्व पर लागू किये गए तीनो गुण’
श्लोक (९)
जो तिक्त, स्वाद के खट्टे हों, कड़ए, नमकीन, गरम तीखे,
रुखे, जो रहे दाहकारी, जो ग्राहक होते हैं जी के ।
जो रोग-शोक के कारण हों, जो भोज्य पदार्थ दुखी करते,
वे घटक राजसी भोजन के, राजस मनुष्य को प्रिय लगते
जो रहे करेला जैसे कटु, जो मिरची जैसे तीक्ष्ण रहे,
जो इमली के समान खट्टे, जो खार युक्त नमकीन रहे ।
चटपटे रहे, अति उष्ण रहे, जो दाह करें, बीमार करें,
जन रजोगुणी, ऐसे पदार्थ, के भोजन की वे चाह करें।
श्लोक (१०)
जो तीन पहर पहिले का हो, कहलाता जो भोजन बासा,
उच्छिष्ट कि जो दूषित होवे, जूठा भोजन जो कहलाता ।
रस रहित, शुष्क, अपवित्र रहा, दुर्गन्ध कि हो जिससे आती,
वह रही तामसी सामग्री, तामसी मनुज को वह भाती ।
जूठा, बासा, बेस्वाद, सड़ा, गन्दा, बिगड़ा करता भोजन,
कच्चा, अधपका, विरस खाता, खाने में रहता उसका मन ।
वह पान अपेयों का करता, भक्षण, अभक्ष्य का करता है,
जीवन के लिए नहीं खाता, वह पेट अकेला भरता है।
श्लोक (११)
यज्ञों में : सात्विक यज्ञ’ वहीं, हो शास्त्र विहित जिसका पालन,
फल की इच्छा के बिन जिसका, कर्तव्य भाव से परिपालन ।
यह भाव कि है कर्तव्य यज्ञ, मन में ऐसा निश्चय करके,
निस्वार्थ किया जाता जिसको, रे ‘सात्विक यज्ञ’ उसे कहते ।
यह यज्ञ न कोई समारोह, यह रहा मात्र कर्तव्य भाव,
जिसमें न कहीं फल की इच्छा, है कर्म उचित यह उच्च भावम
सबके हित अपने कार्यों का, अपने जीवन का त्याग रहा,
मानो समष्टि के लिए व्यष्टि का, यह अपना उत्सर्ग रहा । क्रमशः….