‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 207 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 207 वी कड़ी ….

       सप्तदशोऽध्यायः – ‘श्रद्धात्रय विभाग योग’ अध्याय सत्रह – ‘श्रद्धा तत्व पर लागू किये गए तीनो गुण’

श्लोक  (१२)

उद्देश्य प्राप्ति के लिए मगर, जब कोई यज्ञ किया जाता,

मन की विनम्रता के बदले, जब मनुष्य गर्व ही दर्शाता ।

जुड़ता है दम्भाचरण जहाँ, लौकिक सारा परिवेश रहे,

वह ‘यज्ञ राजसी’है अर्जुन जिसमें पाने की चाह रहे।

 

धन, धान्य, मकान प्राप्त करने, या पाने पुत्र कलत्र मान,

परलोक लोक का सुख पाने, या पाने को कोई निदान ।

हो विहित यज्ञ श्रद्धापूर्वक, यह ‘यज्ञ राजसी’ कहलाता,

जुड़ जाती फलासक्ति उससे, अपनापन उससे जुड़ जाता ।

श्लोक  (१३)

जिसमें न शास्त्रविधि का पालन, या विधि विरुद्ध जो रचा गया,

वैदिक मन्त्रों के बिन जिसका, पूजन अर्चन हो किया गया।

बिन दान दक्षिणा या प्रसाद, हो गया समापम रे जिसका,

वह ‘यज्ञ तामसी’ है अर्जुन, वह वह श्रद्धारहित विफल रहता ।

 

नियमों का पालन हुआ नहीं, कोई अनाज बांटा न गया,

मंत्रों का पाठ न हुआ जहाँ, द्विज को न दक्षिणा दान हुआ ।

श्रद्धाविहीन यज्ञ आयोजन, यह’यज्ञ तामसी’ कहलाता,

यह कर्म दक्षिणा दान बिना, केन्द्रित अपने में रह जाता ।

 

श्रद्धा ज्यो भोजन में बंटती, यज्ञों में बंटती ज्यों श्रद्धा,

तप में भी श्रद्धा बंटती है, दानों में भी बंटती श्रद्धा ।

तप के भी तीन प्रकार रहे,’ कायिक तप’ होता काया का,

‘वाचिक’ वाणी का तप होता, अरु रहा ‘मानसिक तप’मन का।

श्लोक  (१४)

अर्जुन शरीर संबंधी तप, पहिला परमेश्वर का पूजन,

फिर देव ब्राह्मण गुरुओं का, अरु मातु-पिता का पगवन्दन

अभिवादन ज्ञानी पुरुषों का, अरु ब्राह्मचर्यका परिपालन,

शुचिता का भाव सरलता का, हो भाव अहिंसा का धारण।

 

कहते शरीर का तप जिसको, वह रहा पवित्रता अपनाना,

धारण वह रहा अहिंसा का, वह ब्रह्मचर्य व्रत का पाना ।

विद्वानों की करना पूजा, पूजा करना वह गुरुओं की,

वह पूजा रही ब्राह्मण की, वह पूजा महती दैवों की ।

 

शास्त्रों में जिनका वर्णन है, वे देव रहे सबसे ऊपर,

जो उनके ज्ञाता विज्ञ रहे, द्विज ब्राह्मण जो रहते भूपर ।

माता अरु पिता जन्मदाता, सम्माननीय अग्रज गुरुजन,

इन सबके प्रति श्रद्धापूरित, हो रहे समर्पित जो वह तन ।

 

जल माटी से परिशुद्ध रखे, तन के सीधेपन को धारे,

मैथुन न करे, संयमी रहे, रक्षित कर वीर्य तेज धारे ।

तन से न किसी की हिंसा हो, दुख कष्ट न कायिक क्रिया से,

इन बातों का पालन होता, साधक के ‘शारीरिक तप’से । क्रमशः….