सप्तदशोऽध्यायः – ‘श्रद्धात्रय विभाग योग’ अध्याय सत्रह – ‘श्रद्धा तत्व पर लागू किये गए तीनो गुण’
श्लोक (१५)
तप वाणी का जिसको कहते, वह रहा सत्य, प्रिय शुभ भाषण,
वेदों का पठन-पाठ प्रतिदिन, अभ्यास निरंतर अरु अध्ययन ।
उद्वेग रहित हो मधुर बोल, उद्विग्न न उद्वेलन कारी,
श्रोता को प्रिय लगने वाले, सुनने वाले को हितकारी
उद्वेग न करने वाला प्रिय, हितकारक अरु यथार्थ भाषण
जप नाम रटन परमेश्वर की, श्रुति शास्त्रों का पाठन वादन ।
यह तप वाणी का कहलाता, वाणी के सारे दोष हरे,
वाणी को करता है पवित्र, अन्तस का ओज जहाँ उभरे ।
जो रहे प्रीतिकर वह वाणी, जो कटु न रहे जो अप्रिय न हो,
जो मंगलकारी हो सबकी, जिसको सुन कोई कुपित न हो।
जिसमें वेदों का ज्ञान बसे, जिसमें उभरे प्रभु की झाँकी,
निर्मलता अन्तस की जिसमें, जो श्रोता को सुख पहुँचाती ।
वाणी वह सत्यासीन रहे, निंदा न करे धारे संयम,
प्रगटाये निर्मलता मन की, लालायित जिसको रहे श्रवण ।
सुनकर जिस को उद्वेग न हो, हो प्रेम युक्त, जिसमें न द्वेष,
तप वाणी का वह रहा पार्थ, जो रहे प्रीति कर हरे क्लेश ।
श्लोक (१६)
मन का तप कहते हैं जिसको, वह पहिला रहा आत्म संयम,
मन तपोनिष्ठ होता जिसका, वह कर लेता इन्द्रिय संयम ।
वह सौम्य, मौन, निष्कपट, शुद्ध, अति सरल हृदय, रहता प्रसन्न,
परहित चिन्तन में लीन रहे, संशुद्धि भाव उसका अनन्य ।
मन की प्रशान्तता को पाता, वह शीतल शान्त, उदार रहे,
वह लीन रहे प्रभु चिन्तन में, वह सौम्य रहे वह मौन रहे।
वह आत्म संयमी बन रहता, रखता है अन्तःकरण शुद्ध,
सदभावों का जिसमें विकास, मन का तप उसको कहें सिद्ध। क्रमशः….