सप्तदशोऽध्यायः – ‘श्रद्धात्रय विभाग योग’ अध्याय सत्रह – ‘श्रद्धा तत्व पर लागू किये गए तीनो गुण’
श्लोक (१७)
तन के, मन के, अरु वाणी के, ये तीन सात्विक तप अर्जुन,
निस्वार्थ भाव से किया गया, होता जब इनका परिपालन ।
प्रभु की प्रसन्नता पाने को, श्रद्धा पूर्वक इनको करते,
तपव्रती, कामना नहीं कभी, अपनी कोई लौकिक करते ।
फल की न चाह रखने वाले, योगी पुरुषों द्वारा साधित,
तीनों तप यह जो कहे गये, जो श्रद्धा पूर्वक आराधित ।
सात्विक रुप इनको कहा गया, श्रद्धा विहीन तप भिन्न रहे,
अविहित कर्म न रहे सात्विक, वे पापमूल, वे घोर रहे ।
सात्विक तप तब ही कहलाता, जब श्रद्धापूर्वक किया गया,
तप से फल पाने का कोई, जब मन में नहीं विचार रहा ।
मन रहा सन्तुलित साधक का, आस्तिकता का करता पालन,
सात्विक श्रद्धा से ही सधता है, उसका सात्विक तप अर्जुन ।
श्लोक (१८)
तप-त्याग दिखावा करने का, या आकर्षित जन-मन करने,
पाने सत्कार मान पूजा, या तुष्टि अहम् की ही करने ।
जो किया गया वह रजोगुणी, तप रहा राजसी हे अर्जुन,
अनियत फल क्षणिक प्रदान करे, चलता है यह थोड़े ही दिन ।
तप के आश्रय से जो साधक, चाहें महानता की चोटी,
या त्रिभुवन की चाहें सत्ता, या पिटे न जो ऐसी गोटी ।
सब लोग करें मेरे दर्शन, मेरी पूजा, स्तुति मेरी,
सब भोग प्राप्त करना चाहें, बोले केवल तूती मेरी
वे नाम प्रतिष्ठा पाने को, तन-मन से तप का ढोंग करें,
उनका तप, राजस तप होता, तप उनके अस्थिर क्षणिक रहे
वे ठाठ गाय जैसे होते, जो जन्मे शिशु पर दूध न दे,
या ऐसा खेत निदाँ जिसको, चर जाए पशु निर्मूल करे।
जो स्वार्थ सिद्धि के लिए हुआ, सत्कार, मान, पूजा पाने,
आस्थाविहीन राजसी रहा, धारित जो रहा प्रसिद्धि पाने ।
वह राजस-तप चल अध्रुव रहा, फल क्षणिक अस्थिर रहता है,
असमय का बादल गरजे पर, क्या मेघ समान बरसता है ? क्रमशः….