सप्तदशोऽध्यायः – ‘श्रद्धात्रय विभाग योग’ अध्याय सत्रह – ‘श्रद्धा तत्व पर लागू किये गए तीनो गुण’
श्लोक (१९)
हठपूर्वक जिसे किया जाता, अविवेकपूर्ण अनहित करने,
अपनी आत्मा को पीड़ित कर, या अन्यों को पीड़ित करने ।
करने विनाश अथवा अनिष्ट, जिस तप का होता आयोजन,
जिसका परिणाम न हितकारी, वह रहा तामसी तप अर्जुन ।
ईंधन शरीर को समझ मूर्ख, उसमें पंञ्चाग्नि जगाते हैं,
सिर पर सिगड़ी रखकर चलते, गूगल डालें धधकाते हैं।
काँटो की नोकों पर लेटें, अंगारों से ओलें शरीर,
उपवास करें उल्टे लटकें, दें कष्ट स्वयं सह चलें पीर ।
नोचें शरीर घायल हो लें, बहुभाँति यातना दें तन को
ऐसे तप का साधन करके, दे चलें सान्त्वना वे मन को ।
चाहें अनहित, अनहित करने, वे मारक अनुष्ठान रचते,
ये रहे तामसी तप अर्जुन, ज्यों टूट गिरें पत्थर गिरि के ।
खुद हो जाते जो चूर-चूर, लें जान दूसरों की गिरकर,
अपने तन को दुख पहुंचाते, मन में सुख की इच्छा लेकर ।
पहुँचाते हानि दुराग्रह से, होते न सफल वे तपोव्रती,
निष्फल रहता है तप उनका, वे पापनिष्ठ, वे मूढमती ।
अपने तन को पीड़ित करते, पीड़ित वे करें दूसरों को,
तप का मतलब अज्ञात उन्हें, हर कष्ट सहन है तप उनको।
आत्मा को देते रहें कष्ट, रुचि वे अनिष्ट में लेते हैं,
वे रहे तामसी वृत्ति धार, जो तामस-तप को सेते हैं ।
जितने भी विकृत रुप रहे, तप के वे तामस कहलाते,
वे नहीं किसी का हित करते, उनसे न कार्य कुछ बन पाते ।
मन से वाणी से या तन से, संबंधित रे जो कष्ट रहे,
खुद सहे, दूसरों को या दे, तामस-तप हैं वे कहे गये ।
श्लोक (२०)
कर्तव्य समझ जो दान करे, मन में परमार्थ परायणता,
शास्त्रोवक्त विधान करे पालन, सत्पात्र दान जिसको करता ।
जो देशकाल का ध्यान रखे, पर प्रत्युपकार न चाहे जो,
दानी का सात्विक दान रहा, दाता न स्वयं को माने जो ।
जो देश काल का ध्यान रखे, जो सही पात्र का रखे ध्यान,
कर्तव्य समझकर दान करे, जिसमें न रहे कर्ताभिमान ।
उपकार चुकाने के बदले, जिसको न गया हो अपनाया,
वह रहा सतगुणी दान पार्थ, सात्विक गुण धारक के द्वारा
धन जिसका दान दिया जाता, वह हो पवित्र अर्जित श्रम का,
विधि सम्मत हो, उसका ही हो, दाता बनता मालिक जिसका।
जिसको वह दान दिया जाता, वह हो सुपात्र यह ध्यान रहे,
हो उचित क्षेत्र उपयुक्त समय, प्रतिफल का नहीं विचार रहे।
प्रतिफल की आशा रहित दान, है इंगित आत्मसमर्पण का,
जो दान गरीबों को देता, वह आत्मतुष्टि का सुख पाता ।
वह नहीं दान को याद रखे, चर्चा न दान की करे कभी,
सब दानों में यह श्रेष्ठ दान, कहलाता ‘सात्विक दान’ यही ।
भूखे, प्यासे, नंगे, दरिद्र, रोगी, अनाथ, भयभीत आर्त,
ये रहे दान के पात्र सदा, बन्धन न देश या रहे काल ।
द्विज, ज्ञानी बटुक, सदाचारी, इनको भी दान दिया जाता,
जिसकी जैसी आवश्यकता, वैसा ही रुप दान पाता । क्रमशः….