षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’
अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’
परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।
श्लोक (२०)
मैं असुर योनियों में उनको, हर बार गिराता हूँ अर्जुन,
वे मूढ़ विमुख मुझसे रहकर, उद्धार न पाते जनम जनम ।
मुझको न प्राप्त करने पाते, यह योनि आसुरी पाकर वे,
गति बिगड़ गई तो अधिकाधिक नीचे गिरते जाते हैं वे ।
मानव जीवन का दुरुपयोग, उन्नति से वंचित कर देता,
विपरीत राह पर चलता वह, तामस गुण जो अपना लेता ।
आसुरी स्वभाव का अवधारण, कर देता जन का पूर्ण पतन,
पापी को उसके फल स्वरुप, मिलता है नारकीय जीवन
आश्रय न जहाँ बस अन्धकार, तम की यों मूर्ति सघन भीषण,
फूत्कार भयंकर विषधर की, ऊपर से ऊष्मा का वर्षण ।
नाना जीवों के चीत्कार, सब एक दूसरे के दुश्मन,
चुभते नख-रद, गड़ते पंजे, भय ग्रसित रहा अति व्याकुल मन।
ऐसी विकराल मूर्ति तम की, धंसती दल दल कराह भीषण,
हो घृणा पाप को भी जिससे, हो जहाँ नरक को उत्पीड़न ।
भयभीत जहाँ भय हो जाए, श्रम से श्रम मूर्च्छित हुआ गिरे,
हो मलिन मलिनता जिसमें पड़, अनुताप ताप से जहाँ घिरे ।
आसुरी योनि की दुर्गति का, नरकों का है किस्सा अनन्त,
फिर कैसे हो उद्धार भला, यह मन में उठता एक प्रश्न ।
दुर्गति के कारण रुप तत्व, उनसे बचाव प्रभु बतलाते,
दोषों से जो बचकर रहते, वे अन्तर्वासी को पाते । क्रमशः….