‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 197 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 197 वी कड़ी ….

           षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’

    अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’

 परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।

श्लोक  (२०)

मैं असुर योनियों में उनको, हर बार गिराता हूँ अर्जुन,

वे मूढ़ विमुख मुझसे रहकर, उद्धार न पाते जनम जनम ।

मुझको न प्राप्त करने पाते, यह योनि आसुरी पाकर वे,

गति बिगड़ गई तो अधिकाधिक नीचे गिरते जाते हैं वे ।

 

मानव जीवन का दुरुपयोग, उन्नति से वंचित कर देता,

विपरीत राह पर चलता वह, तामस गुण जो अपना लेता ।

आसुरी स्वभाव का अवधारण, कर देता जन का पूर्ण पतन,

पापी को उसके फल स्वरुप, मिलता है नारकीय जीवन

 

आश्रय न जहाँ बस अन्धकार, तम की यों मूर्ति सघन भीषण,

फूत्कार भयंकर विषधर की, ऊपर से ऊष्मा का वर्षण ।

नाना जीवों के चीत्कार, सब एक दूसरे के दुश्मन,

चुभते नख-रद, गड़ते पंजे, भय ग्रसित रहा अति व्याकुल मन।

 

ऐसी विकराल मूर्ति तम की, धंसती दल दल कराह भीषण,

हो घृणा पाप को भी जिससे, हो जहाँ नरक को उत्पीड़न ।

भयभीत जहाँ भय हो जाए, श्रम से श्रम मूर्च्छित हुआ गिरे,

हो मलिन मलिनता जिसमें पड़, अनुताप ताप से जहाँ घिरे ।

 

आसुरी योनि की दुर्गति का, नरकों का है किस्सा अनन्त,

फिर कैसे हो उद्धार भला, यह मन में उठता एक प्रश्न ।

दुर्गति के कारण रुप तत्व, उनसे बचाव प्रभु बतलाते,

दोषों से जो बचकर रहते, वे अन्तर्वासी को पाते । क्रमशः….