षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’
अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’
परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।
श्लोक (१९)
विद्वेषी असुर नराधम वे, करते हैं अपनी मनमानी,
उनकी भावी गति क्या होती, यह रहती उनको अनजानी ।
जो क्रूर-कर्म, जो दुराचार, करते वे, उसका फल पाते,
पुनि असुर योनियों में गिरते, भव सागर पार न कर पाते।
दुर्गुण उनके अरु दुराचार, कारण बनते हैं अवनति के,
वे योनि आसुरी पाते हैं, फिर अधम योनियों में गिरते ।
ज्यों सिंह बाघ, बिच्छू विषधर, कूकर सूकर कौए पतंग,
पशु पक्षी कीट असंख्य जन्तु, इनसे न मिले फिर उन्हें अंत ।
हे अर्जुन जो विद्वेष करें, जो पापाचार करें सारे,
जो क्रूर कर्म में लिप्त रहें, जो दुष्ट नराधम हत्यारे ।
मैं इन्हें दण्ड देता ही हूँ, आसुरी योनियों में डालूँ,
दुष्टों से जग का त्राण करूँ, मैं अपना दिया वचन पालूँ ।
वे निम्न कोटि के मनुज रहे, वे बुरे कर्म करने वाले,
वे क्रूर, दुष्ट, वे अधम, नीच, वे द्वेष भाव भरने वाले ।
मैं उन्हें भेजता रहता हूँ, आसुरी योनियों में अर्जुन,
उसमें ही भोगा करते वे, बस बदल बदल कर अपना तन ।
मुझसे रखते जो बैर भाव, उनके प्रति मैं क्या करता हूँ,
जन्माता अधम योनियों में, जो किया वही फल भरता हूँ।
मिलती है तामस योनि उन्हें, बिच्छू या बाघ बना करते,
मिलता न उन्हें खाने को कुछ, तन अपना नोंच मरा करते ।
फिर साँप बना देता उनको, अपने विष से जो जलता है,
या जीव मरुस्थल का प्यासा, जो पानी के बिन मरता है।
कल्पों तक भोगे दुसह कष्ट, उससे न मिले फिर छुटकारा,
जो असह-यातना-दुख भोगे, वह अकथनीय वर्णन सारा
हे अर्जुन मुझसे विमुख हुए, वे मूद न मुझको पाते हैं,
जन्मों जन्मों वे घोर नरक में पड़कर कष्ट उठाते हैं ।
वे प्राप्त अधोगति को होकर गिरते जाते नीचे नीचे,
वे रहें भोगते कष्ट भले ही कल्प कल्प पर हों बीते ।
वे अशुभ आचरण से अपने, करते समाज को भ्रष्ट रहे,
निर्दय होकर मारा पीटा, वे करते अत्याचार रहे ।
अपकार किया, हत्याएँ कीं, कितना कितना दुख पहुँचाया,
वह सहस गुना दुष्कर होकर, अब उनका भोग बना आया ।
अब देव पितर या मनुज लोक, इनको न कभी मिल पायेंगे,
पापों से पाप बढ़ायेंगे, पापों में गड़ मर जायेंगे ।
इस योनि आसुरी से नीचे, नरकों का गहरा वास रहा,
जो मूढ़ विमुख मुझसे रहता, सड़ता नरकों में पड़ा पड़ा । क्रमशः….