षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’
अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’
परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।
श्लोक (१८)
वे अहंकार के वशीभूत, करते निरस्त प्रभु की सत्ता,
बल, काम, क्रोध, मद, दर्प मिलें, सबका अपूर्व आसव पकता ।
परमेश्वर जो सबमें बसता, वे उस प्रभु से विद्वेष करें,
वे मेरी निन्दा करें पार्थ, वे धर्म-विरोधी काम करें ।
पहुंचाते रहते कष्ट मुझे, मैं जो उनके भीतर बसता,
पीड़ित करते रहते मुझको, मैं रे हर प्राणी में रमता ।
अपमानित रहूँ असुर से मैं, उसके तन में करके निवास,
वह दुखी करे सारे जग को, होता है जिससे मुझे त्रास ।
मेरे प्रति उसका द्वेष रहा, वह करता मेरा तिरस्कार,
दोषों को देता है प्रश्रय, बस बढ़ा चले नित अहंकार ।
बल, दर्प, क्रोध अरु काम मोह, इनकी संगामित्ती करता,
दुख पहुंचाता रहता मुझको, जग से मेरी निन्दा करता ।
कर चले गुणों को नित खण्डन, अवगुण का करे पिष्टपेषण,
निन्दा बिन कारण के करता, करता रहता दोषारोपण ।
जब दुराचार में हो प्रवृत्त, वह मुझको भला बुरा कहता,
या दुखिया को दुख पहुंचाता, मैं उससे मर्माहत रहता ।
अभिमान काम के वशीभूत, वे द्वेषी मुझसे घृणा करें,
मैं उनके भी भीतर रहता, वे इसका नहीं विचार करें ।
मैं उन देहों में भी बसता, जो असुरों से हो रहीं दुखी,
उनका दुख मुझको दुखी करे, उनका जो रहते आत्ममुखी ।
काले तम को काजल का पुट, कर देता और अधिक काला,
अविचारी से मिल अहंकार, कर देता उसको मतवाला ।
अपने आगे सारे जग को, अति तुच्छ समझने लगता है,
बढ़ जाता दर्प, क्रोध उसका, बन अनल सुलगने लगता है।
कैसी, कैसी हिंसक घातें, करता है असुर अचेत हुआ
, किसकी न हुई निंदा उससे, किसका न अकारण अहित हुआ?
दुख पाते उससे धर्मात्मा, सत्पुरुष कष्ट पाते उससे,
कितने न दोष के द्वार खुले, कितने न पतित होते जुड़ के ।
मैं भले-बुरे सब कर्मो का, साक्षी बनकर रहता अर्जुन,
लेखा रखता दुष्कृत्यों का, जीवन में करते जो दुर्जन ।
भरने देता हूँ पाप-घड़ा, जब वह घट पूरा भर जाता,
फूटा करता है आप स्वयं, पापी फिर नहीं उबर पाता । क्रमशः….