‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 195 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 195 वी कड़ी ….

           षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’

    अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’

 परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।

श्लोक  (१८)

वे अहंकार के वशीभूत, करते निरस्त प्रभु की सत्ता,

बल, काम, क्रोध, मद, दर्प मिलें, सबका अपूर्व आसव पकता ।

परमेश्वर जो सबमें बसता, वे उस प्रभु से विद्वेष करें,

वे मेरी निन्दा करें पार्थ, वे धर्म-विरोधी काम करें ।

 

पहुंचाते रहते कष्ट मुझे, मैं जो उनके भीतर बसता,

पीड़ित करते रहते मुझको, मैं रे हर प्राणी में रमता ।

अपमानित रहूँ असुर से मैं, उसके तन में करके निवास,

वह दुखी करे सारे जग को, होता है जिससे मुझे त्रास ।

 

मेरे प्रति उसका द्वेष रहा, वह करता मेरा तिरस्कार,

दोषों को देता है प्रश्रय, बस बढ़ा चले नित अहंकार ।

बल, दर्प, क्रोध अरु काम मोह, इनकी संगामित्ती करता,

दुख पहुंचाता रहता मुझको, जग से मेरी निन्दा करता ।

 

कर चले गुणों को नित खण्डन, अवगुण का करे पिष्टपेषण,

निन्दा बिन कारण के करता, करता रहता दोषारोपण ।

जब दुराचार में हो प्रवृत्त, वह मुझको भला बुरा कहता,

या दुखिया को दुख पहुंचाता, मैं उससे मर्माहत रहता ।

 

अभिमान काम के वशीभूत, वे द्वेषी मुझसे घृणा करें,

मैं उनके भी भीतर रहता, वे इसका नहीं विचार करें ।

मैं उन देहों में भी बसता, जो असुरों से हो रहीं दुखी,

उनका दुख मुझको दुखी करे, उनका जो रहते आत्ममुखी ।

 

काले तम को काजल का पुट, कर देता और अधिक काला,

अविचारी से मिल अहंकार, कर देता उसको मतवाला ।

अपने आगे सारे जग को, अति तुच्छ समझने लगता है,

बढ़ जाता दर्प, क्रोध उसका, बन अनल सुलगने लगता है।

 

कैसी, कैसी हिंसक घातें, करता है असुर अचेत हुआ

, किसकी न हुई निंदा उससे, किसका न अकारण अहित हुआ?

दुख पाते उससे धर्मात्मा, सत्पुरुष कष्ट पाते उससे,

कितने न दोष के द्वार खुले, कितने न पतित होते जुड़ के ।

 

मैं भले-बुरे सब कर्मो का, साक्षी बनकर रहता अर्जुन,

लेखा रखता दुष्कृत्यों का, जीवन में करते जो दुर्जन ।

भरने देता हूँ पाप-घड़ा, जब वह घट पूरा भर जाता,

फूटा करता है आप स्वयं, पापी फिर नहीं उबर पाता । क्रमशः….