सप्तदशोऽध्यायः – ‘श्रद्धात्रय विभाग योग’ अध्याय सत्रह – ‘श्रद्धा तत्व पर लागू किये गए तीनो गुण’
श्लोक (२)
श्री भगवानुवाचः-
भगवान कृष्ण बोले, अर्जुन, श्रद्धा के तीन प्रकार रहे,
प्राणी का जो प्राकृतिक गुण, उस गुण की ही श्रद्धा उपजे ।
सात्विक,राजस, तामस होती, सत, रज, तम ज्यों अन्तस का गुण,
श्रद्धा गुण की है अनुवर्ती, इसका ही तत्व निरुपण सुन ।
श्लोक (३)
हे अर्जुन जीवों की श्रद्धा, गुण के अनुसार हुआ करती,
अन्तस का जिसका जैसा गुण, वैसी श्रद्धा उसकी बनती ।
श्रद्धामय है यह जीव पार्थ, श्रद्धावाला समझा जाता,
जिस गुण का अन्तः करण हुआ, उस गुण की श्रद्धा वह पाता।
जैसे करता है कर्म मनुज, वैसा स्वभाव उसका बनता,
अन्तस में बसता है स्वभाव, यह क्रम अन्योन्याश्रित चलता ।
प्रकृतिस्थ पुरुष की यह निष्ठा, उसके गुण के अनुरुप रहे,
जैसा गुण वह करता धारण, उसके जैसे ही कर्म करे ।
पहिचान मनुज की कैसे हो, क्या उसकी निष्ठा का स्वरुप?
केवल श्रद्धा के बल पर ही, उपलब्ध नहीं होता स्वरुप ।
क्या ब्राहण भ्रष्ट नहीं होता, अन्त्यज से करे समागम जो,
चन्दन शीतल, पर जलता हो, तो नहीं जला देता क्या वो?
मदिरा के प्याले में पड़कर, क्या गंगाजल दूषित न हुआ?
क्या चोखे सोने जैसा ही, खोटे सोने को भाव मिला?
श्रद्धा का मूल स्वरुप शुद्ध, पर जिसके वह हिस्से आती,
– उसके गुण धर्म स्वभाव गहे, सत रज से विकृत हो जाती ।
अन्तस की जैसी वृत्ति रही, संकल्प, वासना गहती है.
होते हैं क्रिया-कर्म वैसे, वैसे तन में वह रहती है ।
हो जाते नष्ट बीज, बनकर वे वृक्ष नया, उभराते हैं,
फिर बीज-वृक्ष का क्रम चलता, सदियों तक चलते जाते हैं।
त्रिगुणत्व न युग-युग तक बदले, परिवर्तन गुण की मात्रा में,
सत घटता रज, तम बढ़ जाता, पाता प्रधानता यात्रा में ।
सत बढ़े ज्ञान की हो पुकार, इच्छा जागृत होती हित की,
पर रज, तम, शान्त नहीं रहते, घटती जाती गरिमा सत की।
सतगुण के कारण की श्रद्धा, उसका फल मोक्ष रहा अर्जुन,
लेकिन जब राजस बढ़ जाता, इच्छा से श्रद्धा रहे सघन ।
भड़के जब ज्वाला तामस की, श्रद्धा का हो निषिद्ध सेवन,
भोगों में ही रम रहता तब जीवों का अपना चंचल मन । क्रमशः….