षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’
अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’
परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।
श्लोक (११)
वे मान रहे जीवन उनको, सुख-भोग तृप्ति के लिए बना,
वे चाह रहे अन्तिम क्षण तक, अपनी इन्द्रियाँ तृप्त करना ।
विस्तार रहा चिन्ताओं का, भोगाग्नि न होती शान्त कभी
अतृप्त वासना चिन्ता में, जलते रहते वे असुर सभी ।
जो चलें चिता तक साथ उन्हीं, चिन्ताओं को लेकर चलते,
वे इतनी बोझिल रहीं पार्थ, उनके ही भार तले दबते ।
कर सकें कामना को पूरी, यह प्यास रही, यह ही चिन्ता,
ऐसा झूठा संसार रहा, पग-पग पर मायामृग छलता ।
पर ऐसे रहे विमोहित वे, इच्छाओं का संसार रचें,
पूरी हो तो फिर प्यास बढ़े, पूरी न हुई तो शोक करें ।
सर्वोच्च लक्ष्य मानें उनको, तन-मन उसमें ही खपा चलें,
बस जीवन का सुख इतना ही, इसको ही पाने जनम धरें।
चिन्ताओं से न विमुक्त हुए, जीवन पर्यन्त रहा घेरा,
वे विषय-भोग की बस्ती में, डाले रहते अपना डेरा ।
इतना ही सुख है जीवन में, वे ऐसा निश्चय कर बैठे
जीवन है भोग भोगने को, वे असुर पुरुष ऐसा कहते ।
सामान विषय भोगों के सब, वह एकत्रित करता रहता,
जीवन का केवल लक्ष्य एक, वह तृप्त वासना को करता ।
केन्द्रित सब कार्य-कलाप रहे, उसके इन्द्रिय-सुख पाने में,
रति-क्रीड़ा में, मन-रंजन में, आमोद-प्रमोद जुटाने में ।
भौतिकवादी सिद्धांत यही, कहता है, खाओ और पियो,
चिन्ता न करो, आनन्द करो, जग सुखमय है, सुख को भोगो।
कुछ भी न विचारो पाप पुण्य, कल मिट्टी में मिल जाना है,
लेकर उधार घृत पान करो, फिर किसे दुबारा आना है। क्रमशः….