षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’
अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’
परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।
श्लोक (२४)
अपना कल्याण चाहते जो, वेदों की आज्ञा को पालें,
व्यवहार करें वे विधि सम्मत, कर्मों को तदनुकूल ढालें ।
जो विहित नहीं, जो हो निषिद्ध, उसका कर दें संपूर्ण त्याग,
कर्तव्य कामना रहित करें, मन में धारण करके विराग ।
पर विधि-विधान को त्याग मनुज, बस करें कार्य इच्छानुसार,
आचारों का पालन न करें, पालन न करें धर्मोपचार ।
सन्सिद्धि न वे पाने पायें, होती न शुद्धि उनके मन की,
सुख शान्ति न उनको मिल पाती, बिगड़ी ही रहती गति उनकी ।
इसलिए स्वयं निर्धारित कर, करणीय रहा क्या अकरणीय,
शास्त्रों से इसका ज्ञान मिले, तज कर्म रहे जो निंदनीय ।
शास्त्रोंक्त कर्म का पालन कर, पालन कर उसका विधि विधान,
यह मार्ग मुक्ति का खुला पार्थ, जग-जंजालों का यह निदान ।
।卐। इति देवासुर सम्पत्ति विभाग योग नामे षोडशोध्यायः ।卐।