षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’
अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’
परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।
श्लोक (१२)
आशायें लेकर वे हजार, बन्धन पर बन्धन बाँध रहे,
वे काम, क्रोध में मते हुए, सीमायें सारी लांघ रहे ।
धन संचय करने भोग हेतु, करते अन्याय बहुत कामी,
परिणाम न देख सकें अपना, वे स्वेच्छाचारी अभिमानी ।
अनगिनती रही लालसायें, जिनके जालों में फँसे हुए,
सेते हैं विषय-वासना को, क्रोधाग्नि प्रज्जवलित किए हुए।
इच्छायें करने तृप्त सकल, अन्यायपूर्ण मग अपनाते,
सम्पत्ति इकट्ठी करते वे, धन-दौलत में धंसते जाते ।
फाँसी के फन्दे आप चुनें, वे विषय परायण लोग सभी,
वे काम-क्रोध में रचे पके, आशायें पालें नई-नई ।
उपभोग करें बहु भोगों का, करते रहते धन का संग्रह,
राहें अन्यायपूर्ण गहते, रहते अशान्त रचकर विग्रह ।
कामोपभोग का ही चिन्तन, उसकी ही विविध कल्पनाएँ,
पूरा करने अपनी इच्छा, चलती हैं विविध जल्पनाएँ ।
अवलम्बन काम-क्रोध का ही, सुविचार नहीं कोई मन में,
धन का संचय करने बहुविध, छल कपट निरत वे जीवन में।
क्या-क्या न व्यूह उपक्रम रचते, क्या क्या न करें वे चोर-कर्म,
वे खेलें जुआँ, जहर दे दें, धन-संग्रह उनका एक धर्म ।
धन रहे भोग का बन साधन, कामी का बढ़ता रहे क्रोध,
नित नई नई इच्छा जागे, विस्मृत रहता उसको प्रबोध ।
कांटे के चारे का लालच, मछली की जैसे मृत्यु बने,
विषयी विषयों में फंसकर त्यों, गहरे डूबे, बेमौत मरे ।
इच्छित न वस्तु मिलती उसको, जीता लेकर झूठी आशा,
गिरता-पड़ता चोटें खाता, वह क्रोध भाव से भर जाता ।
कितने न जाल वह रचता है, कितने न अनिष्ट कर कार्य करे,
करने शिकार निकले वन में, कैसे कैसे न उपाय करे ?
धन पाने जाने कितनों के, प्राणों का हनन असुर करते,
क्या घृणित रहा, क्या निन्दनीय, वे नहीं फिकर इसकी करते।
झूठी आशा के बन्धन से, पाते वे मुक्ति न जीवन में,
बस काम-क्रोध की ही ज्वाला, जलती रहती उनके मन में।
आहुति कुविचारों की पड़ती, धन संचय करने कर्म करें,
अन्याय, अनीति अनय पर चल वे अपना स्वारथ सिद्ध करें।
चोरी करते डाका डालें, हत्या करते विस्फोट करें,
कितने ही करें अवैध कार्य, ठगने कितने षडयंत्र रचे ।
जाली काली करतूतों से सुख चैन छीन लें सीधों का,
धन पर टूटें, टूटे जैसे, दल मरे ढोर पर गीधों का । क्रमशः….