‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 188 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 188 वी कड़ी ….

           षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’

    अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’

 परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।

श्लोक  (१०)

वे विषय भोग में लिप्त रहे, इच्छाओं का विस्तार रहा,

अनुरक्ति कामिनी-कांचन में, शुचिता का पूर्ण अभाव रहा।

मदिरा पायी वे दर्पजनित, मिथ्याभिमान में चूर रहे,

दूषित कर्मो को करने वे, मन वाणी से मजबूर रहे ।

 

वे वशीभूत लोलुपता के, नित क्षुधित रहे, अतृप्त रहे,

पाखण्ड रचा करते बहुविध, उसके प्रवाह में सदा बहे ।

विकसित कर अपना अहंकार, सबसे बढ़कर खुद को मानें,

अभिमान पतन का द्वार रहा, वे इसका अर्थ नहीं जानें ।

 

मतिमूढ़ रहे वे दर्प पगे, संयत न रहे उनके विचार,

ले दृष्टिकोण अनुचित अपना, वे विग्रह का करते प्रसार ।

अपवित्र निश्चयों से जुड़कर, वे जो भी कर्म किया करते,

सधता न किसी का हित उनसे, अनहित के ही काँटे झरते।

 

है काम प्रमुख पुरुषार्थ उन्हें जिसकी न आग बुझने पाती,

कितनी ही जलें लकड़ियाँ पर, वे पूर्ति न उसकी कर पातीं।

उन्मत्त रहे यों ही हाथी, मद पीकर होश न वह रखता,

बौरा जाता है असुर तुरत, सीढ़ी एकाध अगर चढ़ता।

 

वे रहे दुराग्रही उठी प्रबल, मनमाने पर-पीड़क बनते,

प्राणान्त किसी का हो लेकिन, इच्छा कौतुक पूरे करते ।

रत स्वार्थ पूर्ति में रहते वे, परमार्थ न जीवन में जाना,

बस भोगवाद में लिप्त रहे, उसमें ही जीवन सुख माना ।

 

पूरी न जिन्हें करने पायें, ऐसी इच्छायें बढ़ा रहे,

मद रहा आसुरीपन का पर, उस पर भी मदिरा चढ़ा रहे।

मिथ्या सिद्धांतों को गहकर, दिन दिन नीचे गिरते जाते,

आचार भ्रष्ट वे अति मलीन, गिरकर न कभी उठने पाते ।

 

मद युक्त पुरुष वे अज्ञानी, केवल विषयों में लिप्त रहे,

उनको परदृश्य दिखे कैसे, जब वे अपने दृग बंद किए ।

प्रतिकूल विहित कर्मो के वे, कर रहे आचरण मनोनुकूल,

इतने खो गये वासना में, अपने स्वरुप को गये भूल । क्रमशः….