‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 187..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 187 वी कड़ी ….

           षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’

    अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’

 परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।

श्लोक  (७)

वे रहें धर्म से विमुख दूर, वे नहीं अधर्म से अरुचि रखें,

तन मलिन, मलिन मन वे लेकर, कुविचारों में ही सदा बसें ।

वे सत्यविमुख स्वेच्छाचारी, उनको न शास्त्र का ज्ञान रहा,

आचारहीन विपरीत चले, स्वीकार न उन्हें विधान रहा ।

 

आसुरी स्वभाव जिनका अर्जुन, उनको प्रवृत्ति का ज्ञान नहीं,

वे नहीं जानते क्या निवृत्ति, हित का अनहित का ज्ञान नहीं।

वे भीतर की या बाहर की, शुचिता का ध्यान नहीं रखते,

रखते न आचरण वे अच्छा, वे नहीं सत्य भाषण करते ।

 

उनको न कर्म का मार्ग ज्ञात, उनको न त्याग की राह दिखे,

उनमें न दीखता सदाचार, उनमें न शुद्धता कभी दिखे ।

उनमें न सचाई का दर्शन, करते केवल मिथ्या भाषण,

रत दुराचार में रहते वे, अपवित्र सभी उनके साधन ।

 

आसुरी प्रकृति देहाश्रय से, बढ़ती है जैसे अमरवेल,

रेशम का कीड़ा खेल रहा, होता ज्यों अपना मूढ़ खेल ।

अपना कोया रचता जाता, उसके भीतर हो रहे बन्द,

मन मलिन रखे तन मलिन रखे, वह स्वेच्छाचारी दृष्टिमन्द ।

 

बस धुंआ उगलती है चिमनी, है कहाँ ऊँट में सुन्दरता ?

किसको न काट देता बिच्छू, जहरीला डंक लिये फिरता ।

बकरी मुँह मारे यहाँ-वहाँ, पाती है जहाँ कहीं चारा,

होती है शान्त जलाकर ही, ईधन पाकर धधकी ज्वाला ।

श्लोक   (८)

वे बतलाते जग को मिथ्या, कहते जग आश्रय हीन रहा,

ईश्वर होता ही नहीं कहीं, जग-पुञ्ज अविद्या का ठहरा ।

इसका न कार्य न कारण है, उद्भूत प्रकृति से जग सारा,

परिणाम काम का है केवल, समझा जाता उनके द्वारा ।

 

यह जगत चराचर निराधार, इसका कोई आश्रय न रहा,

इसका कोई भगवान नहीं, इसका न नियन्ता, धर्म रहा ।

अस्तित्व जीव का जन्मपूर्व, या मरकर रहता नहीं कहीं,

नर-नारी का संयोग मात्र, प्रजनन पर सारी सृष्टि सधी ।

 

कोई न प्रयोजन है जग का, संयोग, काम इसका कारण,

हो रहा आप अपने सब कुछ, कर रही प्रकृति सारा प्रजनन ।

परिणाम स्वरुप नहीं है जग, इसको रचती केवल इच्छा,

कोई न पौर्यापर्य यहाँ, उपभोग हेतु जग का बनता ।

 

स्वीकार नहीं करते हैं वे, जग का भी कहीं नियन्ता है,

है एक सुनिश्चित ढंग जिस पर, व्यवहार जगत का चलता है।

हैं नियम व्यवस्था के जिन पर, यह सधा वृहत ताना-बाना,

भौतिकवादी जो दृष्टि रही, उसने यह तथ्य नहीं माना ।

 

दिखते न देवता देवलोक, सब झूठा है परलोकवाद,

क्या पाप रहा, क्या पुण्य रहा, किसने जाना है मृत्युवाद ?

उत्पत्ति-विनाश जगत का यह, है काम जनित इच्छा प्रेरित,

थक कर गिरता चलते चलते, तन अपने आप जरा सेवित ।

श्लोक   (९)

अपने मत का कर अवलम्बन, कर चुके नष्ट वे आत्मज्ञान,

मति तुच्छ लिए दुर्बुद्धि असुर, करते विधान विपरीत काम।

वे सबका बहुत अहित करते, उनका न मर्म, उनका न धर्म,

जग का विनाश करने उद्यत, वे नास्तिक करते क्रूर कर्म ।

 

अपनी दुर्गति को जकड़ रखें, वे अल्पबुद्धि वे नष्टात्मा,

जग का विनाश करने उद्यत, रहते हैं वे विनाशात्मा ।

वे क्रूर कर्म करते रहते, सुख-शांति जगत की हर लेते,

दुख भास बढ़ाती जो बातें, उनको अपना प्रश्रय देते ।

 

आत्मा की सत्ता से विहीन, असुरों की ऐसी नास्तिकता,

बस रही देहवादी भौतिक, जिसको न दूर का कुछ दिखता।

वह मन्दबुद्धि सुख में भूली, सुख का ही अर्थ नहीं समझी,

जो है सारे दुख का कारण, उस विषय वासना में उलझी ।

 

आता विनाश का समय पार्थ, आसुरी वृत्ति जागा करती,

बो रहे अशुभ जो जीवन में, उससे है अशुभ फसल उगती ।

पापों का अपने हाथों से, वे कीर्तिमान निर्मित करते,

संसर्ग दोष से नष्ट भ्रष्ट, करते जग को चलते-फिरते ।

 

अपने विनाश के साथ-साथ, जग का विनाश करते हैं ये,

गल जाती फसल साथ इनके, ओला बनकर गलते हैं ये ।

ग्रस लेते इन्हें असाध्य रोग, विषयों की दलदल निगल चले,

जग को इनने भयभीत किया, इसलिए कि ये भयभीत रहे।  क्रमशः….