‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 186 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 186 वी कड़ी ….

           षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’

    अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’

 परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।

श्लोक  (४)

रचता है ढोंग, दम्भ रचता, वह दर्प दिखाता है बल का,

अभिमान प्रदर्शित करता है, वह क्रोध भरा दगता जलता ।

उद्यत रहता झगड़ा करने, बन जाता पल भर में प्रचण्ड,

ये लक्षण रहे असुर के जो, अज्ञानी होता है उद्दण्ड ।

 

प्रतिकूल आचरण करके भी, दिखलाता धर्म परायणता,

वह पाखण्डी, वह गर्वीला, जो धन-विद्या पा इतराता।

अभिमान, क्रोध, अज्ञान विपुल, निष्ठुरता को वह अपनाये,

लक्षण ये असुर प्रकृति के हैं, हे अर्जुन वह न शांति पाये ।

श्लोक   (५)

दैवी गुण सम्पादित करते, वे मोक्ष मार्ग पर जाते हैं,

पर पार्थ आसुरी गुणवाले, बन्धन से उबर न पाते हैं !

तू शोक न कर,व्याकुल मत हो, तूने ये दैवी गुण पाये,

ये पूर्वजन्म के कर्मों से, जब जन्मा, संग तेरे आये ।

श्लोक   (६)

दैवीय दशा के सूचक गुण, जीवन को दिव्य बनाते हैं,

आसुरीय दशा के चतुर लोग, पर भिन्न मार्ग अपनाते हैं।

बलवान, शक्तिशाली होते, पर अहंकार के वशीभूत,

आध्यात्मिक लक्ष्य नहीं रखते, जीवन कर लेते तमोभूत ।

 

दैवी गुण लेकर जन्मे कुछ, कुछ का आसुरी स्वभाव रहा,

कुछ शास्त्र विहित व्यवहार करें कुछ का बस स्वेच्छाचार रहा।

दैवी गुण तुझको सुना चुका, आसुरी वृति का सुन विवरण,

दो रहीं कोटियाँ जीवों की जग जिनमें बँटा हुआ अर्जुन ।

 

दो वर्गों में है बँटा हुआ, समुदाय मनुष्यों का सारा,

दैवी प्रकृति का एक, दूसरा, है आसुरी प्रकृति वाला ।

सात्विक गुण जिसके हैं प्रधान, मिल चुका तुझे उनका विवरण,

अब रज, तम गुण जिनके प्रधान, करता अर्जुन उसका चित्रण ।

 

हैं एक पिता की सन्तानें, सुर असुर भिन्न रखते स्वभाव,

व्यवहार किया करते वैसा, जैसे गुण का बढ़ता प्रभाव ।

सतगुण का धारण दिव्य रहा, रज, तम, असुरत्व बढ़ाते हैं,

गुण जैसे बढ़ते घटते हैं, वे वैसे कर्म कराते हैं ।

 

देवताओं से संघर्ष सदा, असुरों का चलता आया है,

असुरों ने, अहंवादियों ने,देवों को सदा सताया है ।

वे धर्म नियम या न्याय सभी की करें उपेक्षा नीति तजें,

वे रहें असंयत अविचारी सत्ता मद से बस प्रीति रखें ।

 

यह चला सतत जीवन का क्रम, यह आदिकाल से अब तक है,

कुछ लोग देवता तुल्य रहे जिनसे जग जीवन सुखकर है ।

कुछ ऐसे जो पैशाचिक हैं, जो पतित रहे, जो निन्दनीय,

कुछ उदासीन हैं कुछ निष्क्रिय कुछ सत के साधक वन्दनीय ।

 

दो अक्षर पढ़कर ब्रह्म देव को तुच्छ समझने लगता है,

वह देख दूसरे की बढ़ती उन्नति, ईर्ष्या से जलने लगता है ।

बड़वानल बनकर करता है, वह सागर के जल का प्राशन,

चाहे वह पय का पान करे पर ब्याल गरल करता धारण. । क्रमशः….