‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 185 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 185 वी कड़ी ….

           षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’

    अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’

 परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।

श्लोक  (१)

श्री भगवानुवाचः-

भय का अभाव रहता उसमें, रहता है अन्तःकरण शुद्ध,

यज्ञों का अनुष्ठान करता, वह दिव्य ज्ञान में निष्ठ, बुद्ध ।

वह दानशील, तपशील रहा, आता उसको इन्द्रिय संयम,

वह सात्विक सरल उदार रहा, करता शास्त्रों का वह अध्ययन।

(२)

अपने मन का निग्रह करता, वह करे सत्यव्रत का पालन,

पालन वह करे अहिंसा का, करुणा अरु दया किए धारण ।

त्यागी वह क्रोध न कभी करे, देखे न दूसरों के अवगुण,

कोमलता लज्जा को धारे, धारे दृढ निश्चय अपने मन में ।

(३)

मन में न लोभ का भाव रहे, धृति, क्षमा, तेज मन में धारे,

रह निरभिमान, ईर्ष्या विमुक्त, तन-मन में पावनता पाले ।

दैवी गुण को जो प्राप्त पुरुष, लक्षण उसके ये हैं अर्जुन,

नित मुक्ति मार्ग पर बढ़ता है, उन्नति करता वह क्षण प्रतिक्षण ।

श्लोक   (१-२-३)

गुरुजन का वह सम्मान करे, ईश्वर में वह श्रद्धा रखता,

चिन्तन करता रहता प्रभु का, उनके गुण का कीर्तन करता ।

सह कष्ट करे स्वर्धम पालन, वह अडिग रखे अपनी आस्था,

विषयों से खींच इन्द्रियों को, वह पालन करता आर्जव का ।

 

मन से, वाणी से, तन से वह, देता न किसी को कष्ट कभी,

प्रिय मधुर सत्य भाषण करता, करता न किसी का अहित कभी।

अपकारी से न विक्षुब्ध हुआ, कर्त्तापन का अभिमान नहीं,

चित में चंचलता का अभाव, वह देखे प्रभु को सभी कहीं ।

 

वह देख दूसरे का वैभव, ललचाये नहीं न द्वेष करे,

अपमानित पीड़ित होने पर, मन में अपने न अशांति भरे ।

वह लोक विरुद्ध न कार्य करे, वह शास्त्र विरुद्ध न करे कर्म,

वह अहंकार से रहित रहे, मृदुता मार्दव का गहे धर्म ।

 

सबके प्रति समता भाव रखे, जीवों के प्रति वह दयाभाव,

अपने को बड़ा न समझे वह, अपने प्रति रखे न अति लगाव ।

हो धैर्यवान मानस उदार, वह नहीं कुपित प्रतिकार करे,

अविचल रहकर कर्तव्य करे, व्यवहार मधुर परिशुद्ध रहे ।

 

सात्विक प्रसन्नता को पाता, परहित साधे उपकार करे,

निंदा,अपमान, भूतभय से या दण्ड मरण से नहीं डरे ।

मन में न रखे कलुषित विचार, कर चले पवित्रता का पालन,

करता रहता है सतोगुणों का, वह जीवन में सम्वर्द्धन ।

 

वह आत्मलाभ के लिए, ज्ञान या योग किसी को चुन लेता,

कर चित्तवृत्ति एकाग्र उसी में अपनी पूर्णाहुति देता ।

क्या सत्य जगत में क्या असत्य, इसका निर्णय वह कर पाता,

निर्मल करता अपना अन्तस, तप व्रत के साधन अपनाता । क्रमशः….