‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 170 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 170 वी कड़ी ….

अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’

श्लोक  (२१)

अर्जुन उवाच:-

तब अर्जुन ने की जिज्ञासा, हे प्रभो पुरुष के क्या लक्षण?

किस तरह आचरण वह करता, जो लाँघ चुका हो तीनों गुण?

होना अतीत तीनों गुण से, किस साधन से सम्भव करता?

बतालायें प्रभु वह गुणातीत, कैसे बनता, किससे बनता?

 

तीनों गुण से जो परे हुआ, उसकी प्रभु क्या पहिचान रही?

कैसा है रहन-सहन उसका, कैसी प्रभु उसकी वृत्ति रही?

कैसे वह गुण को लांघ सका, उसने क्या साधन अपनायें?

किस विधि को अपना का भगवन, वह पार गुणों के हो जाये?

श्लोक   (२२-२३)

श्री भगवानुवाच:-

जीवात्मा प्राकृत देहबद्ध, आधीन रहे माया-गुण के,

व्यापार सभी जग-जीवन के गुण के आश्रित होकर चलते ।

हे अर्जुन पाए वह प्रकाश अथवा प्रवृत्ति या मोह मिले,

लेकिन जो पुरुष न माया के, इन गुण से कोई द्वेष करे ।

 

इच्छा न करे निवृत्ति हेतु, रहकर उनमें, ज्यों उदासीन,

कर रहे कार्य अपना सब गुण, यह समझे वह स्थित मति प्रवीण ।

सुख-दुख में सदा समान रहे, आकर्षित हो न विकर्षित हो,

समबुद्धि रहे, उसके आगे, मिट्टी पत्थर या कंचन हो ।

 

हे पाण्डव जो न बुरा माने, जो गुण दे जाए सो धारे,

वह हो प्रकाश, या हो प्रवृत्ति, ये रहे मूढ़ता, जो पावे ।

इच्छा न करे उससे हटकर, कुछ न्यूनाधिक परिवर्तन की,

रहकर तटस्थ, उपराम वृत्ति, समरुप उन्हें धारण करती ।

 

रख साक्षी भाव लखे उनको, विचलित, न प्रभावित हो उनसे,

हो रहे कर्म गुण के द्वारा, अपने को अलग रखे उनसे ।

प्राकृतिक परिवर्तन देखे, उनमें न फँसे, रस ले,

उलझे, रहकर परोक्ष अपने गुण से, इस तरह सतत उन्नयन करे ।

 

जब वृद्धि रजोगुण की पाकर, अंकुर कर्मो के फूट चलें,

मैं कर्ता हूँ इन कर्मो का, ऐसे न भाव जब मन उपजें ।

या कर्मनष्ट हो जाने पर, मन में न भाव दुख का जागे,

या सतगुण का प्रकाश पाकर, समझे न बड़ा, सबसे आगे ।

 

सन्तोष मग्न यह समझ न ले, मुझसे न कहीं बढ़कर ज्ञानी,

या वृद्धि तमोगुण की जब हो, समझे न स्वयं को अज्ञानी ।

सुख में न सुखी, दुख में न दुखी, जो गुण के होते कर्म लखे,

वह गुणातीत, अर्जुन सोचो, क्या हिमगिरि को भी ठण्ड लगे?

 

गुण और कार्य गुण के अर्जुन, होते हैं अपने आप स्वयं,

सुख-दुख आयें अथवा जायें, उनसे क्यों विचलित होवें हम?

जैसे सराय में रुक लेता, है राहगीर चलते-चलते,

ऐसी ले वृत्ति विरागमयी, वे हैं जीवन यापन करते ।

 

रणक्षेत्र, उसे क्या हार-जीत, चलता रहता संघर्ष वहाँ,

चौराहे के संकेतक को, सारी हलचल की खबर कहाँ?

लहरों के आने जाने से, जैसे सहयाद्रि नहीं हिलता,

है सुबह दोपहर या सन्ध्या, क्या सूरज यह गणना करता?

 

करने को कर्म प्रवृत्त हुआ, पर गर्व नहीं कर्मठता का,

कितना भी हो ले उष्ण ग्रीष्म, क्या जला अग्नि को वह सकता?

क्या देख अँधेरा घहराते, डर जाती दीपक की बाती?

आ रही लहर जो सागर से, छूकर तट वापिस हो जाती ।

 

मिलता न गुणों के साथ कभी, कर्तव्य न करता अस्वीकार,

ज्ञानी शरीर में रहता है, धारण कर आत्मा निर्विकार ।

कितनी भी तेज बहे आँधी, वह नभ को हिला नहीं पाती,

हो कर्म किसी भी गुण का पर, आसक्ति नहीं उसमें आती ।

 

अविचल रहता वह अविकारी, वह गुणातीत होकर रहता,

देखा करता उत्थान-पतन, पर नहीं लिप्त उनसे रहता ।

वह कर्ता नहीं, रहा दर्शक, गुण कर्मो को लखने वाला,

वह भोक्ता नहीं, न भोग्यवस्तु, वह परम मुक्त, सबसे आला ।

 

गुण के विकार से ग्रसित नहीं, वह रहा तटस्थ गुण-दोषों से,

आचरण करे सत्कर्मो का, सम्पादित जो सात्विकता से ।

सूरज के द्वारा संचालित, ज्यों जग के लोकाचार रहे,

पर ऊँचेनीचे, सघन-विरल, भेदों में क्या वह कहीं बंधे ? क्रमशः….