‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 169 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 169 वी कड़ी ….

अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’

श्लोक  (१९)

तीनों गुण में सब कर्म बंटे, आवर्तन गुण का है गुण में,

जिस समय तुझे यह दीखेगा, कर्ता न रहा कोई इनमें ।

अरु देखेगा परमेश्वर को, इन सभी गुणों से परे पार्थ,

मेरी है परा प्रकृति कैसी, उस क्षण होगा तू इसे प्राप्त ।

 

रे आत्मवस्तु से तीनों गुण, उत्पन्न समर्थ स्वयं होते,

यह देह बने उनका निमित्त, बन वृक्ष धरा से रस लेते ।

स्थूल-सूक्ष्म देहों में रम, बन्धन बनते जीवात्मा का,

पर आत्म तत्त्व रहता स्वतन्त्र, गुण कोई उसे न छू पाता ।

 

अर्जुन जब दृष्टा पाता है, गुण के सिवाय कर्ता न कहीं,

यह भी उसको दीखा करता, जो गुणातीत वह सभी कहीं।

वह देखे हर गुण की सीमा, निस्सीम उसे भी देख रहा,

गुण बन्धन उसे न बन पाते, अर्जुन वह मेरे निकट रहा ।

 

जब दृष्टि मनुज की खुल जाती, वह गुण का कर्त्तापन देखे,

कर्ता न अन्य कोई उनके, यह सिद्ध सत्य दृग से लेखे ।

आत्मा का लखे अकर्त्तापन, गुण से अतीत उसको जाने,

परमात्मा को उसने पाया, वह आत्मरुप को पहिचाने ।

श्लोक  (२०)

इस जीवन में ही जीवात्मा, अमरत्व प्राप्त करता अर्जुन,

वह जन्म मृत्यु वृद्धावस्था, जग के दुख से हो मुक्त अमन ।

जब देह जन्म के कारण ये, गुण तीन प्रकृति के वह लांघे,

अरु शुद्ध सत्व में निष्ठ हुआ, अपने में तत्वज्ञान साधे ।

 

आत्मा शरीरधारी अर्जुन, तीनों गुण से ऊपर उठती,

जो जन्म देह से पाए हैं, उनसे हो परे मुक्त बनती ।

वह जन्म, मरण, वृद्धावस्था, दुख त्रास सभी से मुक्त हुई,

शाश्वत जीवन को पाती है, वह नहीं दुबारा बद्ध हुई ।

 

गुण ऐसे बीज समान रहे, जिनसे विकसित होते शरीर,

संघर्ष, विरोध, शरीरों से जुड़ जाता है सात्विक शरीर ।

होता संघर्ष समाप्त न फिर, अच्छाई, अच्छाई रहती,

सारी नैतिक बाधाओं से, उठकर वह लोकोत्तर बनती ।

 

रज, तम को दूर किया जाता, सत का करते रहकर विकास,

फिर सत का भी करना होता, होने विमुक्त मन में अभाव ।

काँटे से काँटा काढ़ लिया, फिर कहाँ जरुरत कांटे की,

वह छोड़ दिया जाता अर्जुन, यह युक्ति मुक्ति पद पाने की।

 

अमृत को होता प्राप्त पार्थ, जो त्रिगुणों से होता अतीत,

जीवन में ही वह मुक्त हुआ, गुण तीनों जिसने लिए जीत ।

वह नहीं देह में वास करे, अपने स्वरुप में बसता है,

हो गया पुरुष जो गुणातीत, आनन्द प्राप्त वह करता है। क्रमशः…