‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 166 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 166 वी कड़ी ….

अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’

श्लोक  (१२)

अर्जुन सत्विक गुण बढ़ने के, लक्षण यह तुमको बतलाये,

बतलाता अब लक्षण तन में, जब राजस गुण विकास पाये ।

सुख पाने की जागे इच्छा, जीवन के प्रति अनुराग बढ़े,

आवेश पूर्ण चलते प्रयत्न, मन चलित हवा के साथ उड़े।

 

बढ़ चले लोभ, रुचियाँ अनेक, गतिविधियाँ विविध,कार्य नूतन,

पाकर भी मन रहता अशांत, अधिकाधिक को लालायित मन

इन्द्रिय सुख की बढ़ चले चाह,अच्छा लगता विषयोप भोग,

परलोक, लोक को तय करने, जाने करता कितने प्रयोग ।

 

अभिलाषायें जागें अनन्त सारा विस्तार पड़े छोटा,

छोटा लगता है विश्व सकल, उसको सन्तोष नहीं होता ।

लक्षण ये रहे रजोगुण के, जो साथ रजोगुण के बढ़ते,

सम्पन्न महान कार्य जितने, उनको ये रजोगुणी करते ।

 

सन्तुष्ट न होता रजोगुणी, वह अधिकाधिक के लिए लड़े,

लालच लेकर अपने मन में, वह अपने सारे कार्य करे ।

मन में रहती हैं चंचलता, वह विषय-वासना युक्त रहे,

अपने प्रयास उद्यम सारे, वह लाभ कमाने हेतु करे ।

 

स्पृहा, प्रवृत्ति, लोभ अर्जुन, आरम्भ कर्म का, चंचलता,

बढ़ चले रजोगुण जैसे ही, इनका प्रभाव भी बढ़ चलता ।

अर्जुन तुम श्रेष्ठ भरतवंशी, लोभादि दोष तुममें न रहे,

सात्विकता की हो ओर तुम्हारे, कार्य कलाप समग्र रहे ।

श्लोक   (१३)

जब बढ़े तमोगुण कुरुनन्दन, बढ़ता प्रमाद, आलस्य बढ़े,

रे तमोगुणी स्वेच्छाचारी, जो अविहित वे सब कर्म करे ।

सत्कर्म रहा जिनको सक्षम, वह अकर्ममण्ड उनको न करे,

बस रहे मोह से ग्रसित सदा, अपने जीवन में तिमिर भरे ।

 

अन्तस में और इन्द्रियों में, आकाश वृद्धि पाने लगता,

अप्रवृत्ति बढ़े, बढ़ चले मोह, मन में प्रमाद छाने लगता ।

ये लक्षण रहे तमोगुण के, जो तम बढ़ने के साथ बढ़ें,

जो विषयों में भूलें भटकें, जो सारी बुद्धि विवेक हरें ।

 

होता प्रकाश का जब अभाव, अज्ञान घेर लेता मन को,

बढ़ती विमूढ़ता या जड़ता, निष्क्रियता ग्रसती जीवन को ।

कर्तव्य कर्म की इच्छा का, होता अभाव, आलस्य बढ़े,

मन मोहित मानो तन्द्रा का, मद उसके मस्तक को जकड़े ।

 

मन में अज्ञान समाये यों, ज्यों रवि शशि से हो नभ विहीन,

अन्तस लगता जैसे उजाड़, खाली खाली गरिमा विहीन ।

अविचार प्रबल डालें प्रभाव, धारण कर ले उर अनाचार,

मद्यप जैसा डोले प्राणी, सम्बल विहीन हो निराधार ।

 

पाता न मुक्ति जन तमोगुणी, फिर अधम योनि में जन्म मिले,

मानव शरीर को पाकर भी, उसका न जन्म अगला सुधरे ।

राई का बीज सूख जाता, राईपन अपने साथ लिये,

जब पुन:अंकुरित होता है, गुण पहिले के ही साथ जिये । क्रमशः….