‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 165 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 165 वी कड़ी ….

अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’

श्लोक  (९-१०-११)

सत्व दबाता रज, तम गुण को, विजयी इन दोनों पर होता,

रजस दबाता सत, तम गुण को, विजीयी इन दोनों पर होता।

तमस दबाता सत, रज गुण को, और विजय दोनों पर पाता,

हो जाता है प्रमुख वहीं गुण, अन्य शेष से जो बढ़ जाता ।

 

होता है जब सतगुण प्रधान, वैराग्य विवेक जगे मन में,

होता सुखमय प्रसन्न चित्त, भरता प्रकाश ज्यों जीवन में ।

वासना, प्रवृत्ति या लोभ भाव, जो गुण रज के वे दब जाते,

आलस्य प्रमाद दब जाता है, तम के न दोष रहने पाते ।

 

होता है जब रजगुण प्रधान, तन, मन सब चञ्चल हो जाता,

कर्मो के प्रति प्रवृत्ति जागे, सुख का अभाव सा हो जाता।

जो कार्य तमोगुण के घटते, हो रहे तीव्र वासना मन की,

बढ़ जाता लोभ, भोग बढ़ता, सक्रियता बढ़ती जीवन की ।

 

होता है तम गुण प्रधान, मन में न शांति रहने पाती,

इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं, निष्क्रियता सारी बढ़ जाती ।

होती प्रमाद की वृत्ति तीव्र, सतगुण के गुण होते विलीन,

भोगेच्छा रज गुण की मिटती, निद्रित मन रहता है मलीन ।

 

हे अर्जुन कभी रजोगुण यह, सत तम को दाब प्रबल होता,

या कभी तमोगुण प्रबल हुआ, सत रज गुण को निर्बल करता ।

या कर परास्त सबको सतगुण, जब अपनी प्रभुता को पाता,

सब द्वार इन्द्रियों के खुलते, ज्ञानालोकित जन हो जाता ।

 

तीनों गुण रहते विद्यमान, उनकी मात्रा में रहे भेद,

कोई न बचा रहता इनसे, मात्रा ही करती है विभेद ।

जिस गुण की मात्रा अधिक रही, वह गुण प्रधान हो जाता है,

जो आत्मोन्मुख होना चाहे, वह सात्विक गुण अपनाता है।

 

‘सात्विक स्वभाव’ की गतिविधियाँ, होतीं स्वतन्त्र निस्वार्थ शान्त,

राजसिक स्वभाव ‘सक्रिय रहता, वह स्वार्थलिप्त, लोभी, अशान्त ।

‘तामसिक प्रकृति’ जड़ होती है, निष्क्रिय रहती, चलचित्त रहे,

परिवेश रहे जो भी उसका, उसके सम्मुख वह विनत चले ।

 

अर्जुन तन के सब द्वारों से, बाहर आने लगता प्रकाश,

केवल तब समझा जा सकता, हो रहा सत्वगुण का विकास ।

आलोक ज्ञान का फूट रहा होता है, सभी इन्द्रियों से,

अनुभव हो रहा चेतना का, भौतिक तल पर जग जीवन के ।

 

हो जाता है आलोकित मन, इन्द्रियाँ तीव्रतर हो जातीं,

जैसे सुमनों के खिलने पर, भीतर न गन्ध फिर रह पाती ।

ज्यों दीपक के जल जाने पर, अंधियारा पास न आता है,

जो लुका-छिपा था कौने में, वह आप स्वयं हट जाता है।

 

रहना होता है सावधान, लक्षण विकसित होते जाएँ, रज,

तम के गुण उन पर अपना, फिर से न असर करने पाएँ ।

सक्षम है यह मानव शरीर, निर्मल सात्विकता पा सकता,

अपने जीवन में मुक्तामणि, यह खींच स्वर्ग से ला सकता ।

 

होता जब प्रादुर्भूत ज्ञान, भर जाता मन में उजियाला,

घटने लगता है राग-द्वेष, भय, चिन्ता, शोक मिटे सारा ।

उपराम वृत्तियाँ हो जातीं, वैराग्य भावना दृढ़ होती,

सुख-शांति चन्द्रिका पूनम की, शीतल हीतल को कर जाती । क्रमशः….