‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 164 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 164 वी कड़ी ….

अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’

श्लोक  (६.७.८)

अति तृष्णा के उद्योग करे, कौड़ी के लिए तजे जीवन,

वह काम्य कर्म को अपनाये, तल्लीन स्वार्थ में रहता मन ।

देही जो देह नहीं फिर भी, तन, मन की धारे चञ्चलता,

बहुभाँति रजोगुण में पड़कर, जीवात्मा बन्धन में पड़ता ।

 

अर्जुन राजस गुण रुप, उत्पन्न कामना से होता,

आसक्ति पालती है इसको, विषयों का यह धारक होता ।

कर्मों के प्रति जागा लगाव, जीवात्मा का बन्धन बनता

फलासक्ति का पाश दूसरा, उसे जकड़कर है रखता ।

 

हे पार्थ तमोगुण है ऐसा, सब जीवों को मोहित करता,

अज्ञान जनित यह गुण विशेष, देहाभिमानियों में रहता ।

निद्रा, प्रमाद, आलस्य उन्हें, हरदम रहते घेरे अर्जुन,

विपरीत सत्वगुण के यह गुण, दुष्कर इसके कटना बन्धन ।

 

अज्ञान जनित निष्क्रियता से, हो मोह ग्रस्त सब तन धारी,

होते हैं बन्धन युक्त पार्थ, घेरा करती लापरवाही ।

निद्रा बढ़ती, आलस्य बढ़े, बढ़ता प्रमाद, बन्धन कठोर,

अवसाद तिमिर का गहराये, दीखे न दूर तक कहीं भोर ।

 

काले अज्ञान समान रात्रि, तमोगुण में पलता

उत्पन्न करे भ्रम,मादकता, ज्यों पात्र मद्य का यह बनता ।

जो मान रहे तन को आत्मा, उन पर प्रयुक्ति से छा जाता,

इस तरह सघन हो जाता है, कोई न निकल उससे पाता ।

 

यह जड़ कर देता इन्द्रिय को, मन हो जाता विमूढ़ इससे,

संयोग करे निष्क्रिय शरीर, कर सके न ढंग से कर्मो को ।

आँखें रहती हैं उन्मीलित, कुछ भी न दिखाई देता है,

गिर गया जहाँ, जम गया वहीं, उठने का नाम न लेता है।

 

निद्रा सहचरी रहे उसकी, उद्देश्यहीन होता चलना,

हित वह पहिचान नहीं पाता, उसको बस गिरना ही गिरना ।

दुसाहस करता है अनेक, जो कर्म निषिद्ध उन्हें करता,

प्रतिबिम्ब दिखे जो पानी में, पाने उसको जल में गिरता ।

 

आत्मा को कसकर रखता है, हेतु अर्जुन तम बहु पाशों में,

गुण में ही आत्म तत्व भासे, वह खोया रहे विलासों में ।

देहाभिमानियों को यह गुण, सबसे ज्यादा मोहित करता,

निद्रा, प्रमाद, आलस में फंस, दिन-दिन गहरा जाए घंसता ।

 

अन्योन्याश्रित सम्बन्ध रहा, अज्ञान तमोगुण दोनों में,

आधार और आधेय भाव, हो रहा समाहित दोनों में ।

जीवात्मा मुक्त न हो पाता, इसका चंगुल अनिवार रहा,

तन्द्रा फिर स्वप्न, सुषुप्ति गहन, निद्रा का ही अभिसार रहा ।

 

तीनों गुण हैं बन्धनकारी, हे अर्जुन कहा गया ऐसा,

सुख की आसक्ति रही सत में, रज में फल पाने की इच्छा ।

तम में प्रमाद लाता बन्धन, अज्ञान नयन पट पर छाता,

जो कुछ भी करता तमोगुणी, वह शुभ न किसी का कर पाता ।

 

हे अर्जुन, सतगुण, अच्छाई, सुख में प्रवृत्त करती जन को,

होता प्रवृत्त कर्मों में वह, जो लेकर चले रजोगुण को ।

पर आच्छादित कर चले बुद्धि, जीवात्मा की प्रमाद बनकर,

यह वृत्ति तमोगुण की विशेष, जो नृत्य करे सिर पर चढ़कर ।

 

बांध रहे गुण जीवात्मा को, उनके अपने ढंग निराले,

सुख में लगा रहा है सतगुण, रजगुण कर्मक्षेत्र में डाले ।

ढँककर ज्ञान, प्रमाद बढ़ाता, रही तमोगुण की परिपाटी,

कर संयोग गुणों से आत्मा, अपनी मुक्ति न पाने पाती ।

 

ये तीनों गुण बन्धनकारी, सुख की आसक्ति रही सत में,

कर्मों के फल की इच्छा ही, बन्धनकारी होती रज में ।

तम में प्रमाद लाता बन्धन, उद्धार न उससे हो पाये,

तीनों गुण हैं प्रतिद्वन्दी, जो प्रबल, प्रमुख वह हो जाये । क्रमशः….