अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’
श्लोक (६.७.८)
अति तृष्णा के उद्योग करे, कौड़ी के लिए तजे जीवन,
वह काम्य कर्म को अपनाये, तल्लीन स्वार्थ में रहता मन ।
देही जो देह नहीं फिर भी, तन, मन की धारे चञ्चलता,
बहुभाँति रजोगुण में पड़कर, जीवात्मा बन्धन में पड़ता ।
अर्जुन राजस गुण रुप, उत्पन्न कामना से होता,
आसक्ति पालती है इसको, विषयों का यह धारक होता ।
कर्मों के प्रति जागा लगाव, जीवात्मा का बन्धन बनता
फलासक्ति का पाश दूसरा, उसे जकड़कर है रखता ।
हे पार्थ तमोगुण है ऐसा, सब जीवों को मोहित करता,
अज्ञान जनित यह गुण विशेष, देहाभिमानियों में रहता ।
निद्रा, प्रमाद, आलस्य उन्हें, हरदम रहते घेरे अर्जुन,
विपरीत सत्वगुण के यह गुण, दुष्कर इसके कटना बन्धन ।
अज्ञान जनित निष्क्रियता से, हो मोह ग्रस्त सब तन धारी,
होते हैं बन्धन युक्त पार्थ, घेरा करती लापरवाही ।
निद्रा बढ़ती, आलस्य बढ़े, बढ़ता प्रमाद, बन्धन कठोर,
अवसाद तिमिर का गहराये, दीखे न दूर तक कहीं भोर ।
काले अज्ञान समान रात्रि, तमोगुण में पलता
उत्पन्न करे भ्रम,मादकता, ज्यों पात्र मद्य का यह बनता ।
जो मान रहे तन को आत्मा, उन पर प्रयुक्ति से छा जाता,
इस तरह सघन हो जाता है, कोई न निकल उससे पाता ।
यह जड़ कर देता इन्द्रिय को, मन हो जाता विमूढ़ इससे,
संयोग करे निष्क्रिय शरीर, कर सके न ढंग से कर्मो को ।
आँखें रहती हैं उन्मीलित, कुछ भी न दिखाई देता है,
गिर गया जहाँ, जम गया वहीं, उठने का नाम न लेता है।
निद्रा सहचरी रहे उसकी, उद्देश्यहीन होता चलना,
हित वह पहिचान नहीं पाता, उसको बस गिरना ही गिरना ।
दुसाहस करता है अनेक, जो कर्म निषिद्ध उन्हें करता,
प्रतिबिम्ब दिखे जो पानी में, पाने उसको जल में गिरता ।
आत्मा को कसकर रखता है, हेतु अर्जुन तम बहु पाशों में,
गुण में ही आत्म तत्व भासे, वह खोया रहे विलासों में ।
देहाभिमानियों को यह गुण, सबसे ज्यादा मोहित करता,
निद्रा, प्रमाद, आलस में फंस, दिन-दिन गहरा जाए घंसता ।
अन्योन्याश्रित सम्बन्ध रहा, अज्ञान तमोगुण दोनों में,
आधार और आधेय भाव, हो रहा समाहित दोनों में ।
जीवात्मा मुक्त न हो पाता, इसका चंगुल अनिवार रहा,
तन्द्रा फिर स्वप्न, सुषुप्ति गहन, निद्रा का ही अभिसार रहा ।
तीनों गुण हैं बन्धनकारी, हे अर्जुन कहा गया ऐसा,
सुख की आसक्ति रही सत में, रज में फल पाने की इच्छा ।
तम में प्रमाद लाता बन्धन, अज्ञान नयन पट पर छाता,
जो कुछ भी करता तमोगुणी, वह शुभ न किसी का कर पाता ।
हे अर्जुन, सतगुण, अच्छाई, सुख में प्रवृत्त करती जन को,
होता प्रवृत्त कर्मों में वह, जो लेकर चले रजोगुण को ।
पर आच्छादित कर चले बुद्धि, जीवात्मा की प्रमाद बनकर,
यह वृत्ति तमोगुण की विशेष, जो नृत्य करे सिर पर चढ़कर ।
बांध रहे गुण जीवात्मा को, उनके अपने ढंग निराले,
सुख में लगा रहा है सतगुण, रजगुण कर्मक्षेत्र में डाले ।
ढँककर ज्ञान, प्रमाद बढ़ाता, रही तमोगुण की परिपाटी,
कर संयोग गुणों से आत्मा, अपनी मुक्ति न पाने पाती ।
ये तीनों गुण बन्धनकारी, सुख की आसक्ति रही सत में,
कर्मों के फल की इच्छा ही, बन्धनकारी होती रज में ।
तम में प्रमाद लाता बन्धन, उद्धार न उससे हो पाये,
तीनों गुण हैं प्रतिद्वन्दी, जो प्रबल, प्रमुख वह हो जाये । क्रमशः….