अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’
श्लोक (६.७.८)
जीवात्मा बन्धन से बंधती, जो नित्य रही जो अविनाशी,
गुण प्रकृतिजन्य बांधे उसको, जब गुण शरीर में वह आती।
आसक्ति देह में रखती है सम्बन्ध पदार्थों से रखती,
अभिमान, ममत्व भरी भूली, वह नहीं स्वरुप, अपना लखती ।
हे पाप रहित अर्जुन गुण में, सत गुण सबसे अच्छा होता,
वह विकसित करता बुद्धि ज्ञान, जीवन जिससे सुखकर होता ।
निर्मल वह, मुक्त विकारों से, कर देता पुरुषों को ज्ञानी,
पर बनता बन्धन का कारण, हो जाते जन जो अभिमानी ।
निष्पाप पार्थ निर्मल सतगुण, इसलिए विकीर्ण करता प्रकाश,
यह रहा निरामय सुखकारक, इसमें न रहे कोई विकार ।
यह बांध रहा जीवात्मा को, अपने सुख से ज्ञानार्जन से,
मैं परम सुखी मैं हूँ ज्ञानी, ये भाव पाश उसके बनते ।
सात्विक सुख साधक पा जाता, हो जाता बोध प्राप्त उसको,
लेकिन अभिमान रहे जागृत, गुण से ही बांध रखे उसको ।
अभिमान कि मैं हूँ सुखी बहुत, अभिमान कि मैं हूँ अति ज्ञानी,
जीवात्मा मुक्त न हो पाता, गुण में ही रम रहता ज्ञानी ।
अच्छाई जो होती विशुद्ध, दैवीय प्रकाश दे, स्वस्थ करे,
पर यह भी ले आसक्ति भाव, आत्मा को बन्धन में जकड़े।
यह गुण, आनंद, ज्ञान दायक, पर अहंकार यदि साथ रहा,
सात्विक गुण रहा शुद्ध फिर भी, वह बन्धन कारी रहा सदा ।
सुख और ज्ञान के पाशों में, यह जीवात्मा को फाँस रहा,
सुनकर विद्वान विशेषण जो, सन्तुष्ट हुआ पथ भूल रहा ।
संचार अहम का हो आता, सुख विषय इसे भरमा लेता,
बन जाता बन्दी बल स्वयं, बन्धन जग के अपना लेता ।
हे पार्थ रजोगुण काम जनित, नर-नारी का है आकर्षण,
नारी का राग पुरुष के प्रति, नारी के प्रति त्यों नर का मन ।
तृष्णा आसक्ति बढ़े इससे, इन्द्रियाँ तृप्त न हो पातीं,
जीवात्मा कर्म सकाम करे, उसको न मुक्ति मिलने पातीं ।
यह बात जान ले भली भांति, आकर्षण का ढंग रजस रहा,
आसक्ति जन्य, वह लोभजन्य, आवेश रहा, वह राग रहा ।
जीवात्मा को जो जकड़ रखे, कर्मो के प्रति आसक्ति जगा,
अर्जुन जो कर्ता नहीं वहीं, कर्मो का कर्त्ता रहे बना ।
विषयों की ओर बढ़ाता है यह रजस भाव का प्रमुख काम,
होकर सवार उड़ता फिरता, जीवात्मा अपना त्याग धाम ।
घी और अग्नि से बढ़े आग, आसक्ति तेज होती जाए,
विषयों के आकर्षण में पड़, वह ही विषयों को पिछ्याये । क्रमशः….