‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 154 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 154 वी कड़ी ..

               त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’

अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’

श्लोक  (२७)

देहात्मा के सँग परमात्मा, सब जीवों में नित वास करे,

जो जीवों में ऐसा देखे, जो जीवों में ऐसा समझे ।

विघटित होते हैं, पंचतत्व, पर उसका होता नाश नहीं,

ऐसा जिसने देखा समझा, वह देख रहा है पार्थ सही ।

 

जो सभी वस्तुओं में अर्जुन, परमात्मा को बसते देखे,

सबमें निवास उसका समान, ऐसा परमात्मा को लेखे ।

हो जाती नष्ट वस्तुएँ पर, वह देखे उसको अविनश्वर,

है सही देखना उसका ही, वह सार्व भौम रहता जीकर ।

 

हर वस्तु विकासोन्मुख जग में, यह दशा सतत अविराम चली,

जिस क्षण समाप्ति होती गति की, तब भी रहती है धुरी सधी ।

यह नष्ट नहीं होने पाती, जिसने इसको समझा देखा,

अविनाशी तत्व दिखा उसको, उसने परमात्मा को देखा ।

 

सब नष्ट हो रही वस्तुओं में, जो अमर तत्व को देख रहा,

समभाव समाया सबमें जो, उस परमात्मा को देख रहा ।

वह सुखी नहीं, वह दुखी नहीं, वह जन्म-मरण से मुक्त दिखे,

देखे ऐसा, देखे यथार्थ, हो गया सत्य का ज्ञान उसे ।

श्लोक  (२८)

जो पुरुष देखता परम पिता, जीवों में बसता एक रुप,

जो समझ रहा होता यह जग, बस रहा दुखों का एक कूप ।

वह अपना अध:पतन रोके, अपना स्वरुप पहिचान सके,

हो जाता प्राप्त परम गति को, परमार्थ जीव वह साध सके ।

 

वह रहे ब्रह्म में हो अभिन्न, उसका न कभी फिर हो विनाश,

अंतिम फल मिले साधनों का, छूटे उसका अज्ञान-पाश ।

अपने को नष्ट नहीं करता, प्रिय अप्रिय किसी का रहे नहीं,

वह तत्व ज्ञान प्रत्यक्ष करे, निज रुप देखता सभी कहीं ।

 

हों जीव भले ही भिन्न किन्तु, आत्मा सर्वत्र समान सरल,

धाराएँ वर्षा की विभिन्न, पर तत्व रुप वह होता जल ।

जीवात्मा आत्म तत्व लेकिन, वह जीव धर्म से विलग रहा,

उसको मिल गई दृष्टि अर्जुन, जिसने ऐसा देखा, समझा ।

 

ईश्वर सब जगह समान रहा, ऐसा जो देख रहा अर्जुन,

आत्मा से सच्ची आत्मा को, वह कष्ट नहीं देता अर्जुन ।

पा लेता जीवन-शिखर-लक्ष्य, पा जाता पद वह अविनाशी,

साक्षी बनकर लहरें देखे, जो आतीं है अथवा जातीं ।

 

टहनी टेढ़ी हो या सीधी, लेकिन फल फलते हैं समान,

हैं जीव विविध दुनिया में पर, ईश्वर है सबमें विद्यमान ।

व्यवहार नाम हैं विविध वेष, जिनकी गिनती बढ़ती जाती,

लेकिन अति सूक्ष्म डोर सबमें, जीवन की, जो न लखी जाती । क्रमशः….