त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’
अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’
श्लोक (२५)
कुछ ऐसे भी होते अर्जुन, जिनको न ज्ञान होने पाता,
पर श्रद्धा भाव लिए मन में, वह भक्ति परायण हो जाता ।
आचार्यों से परमात्मा का, सुनकर गुणगान मुदित होते,
वे जन्म-मृत्यु के बन्धन से, हो मुक्त जीव, भव से तरते ।
कुछ रहें दूसरे लोग जिन्हें, रहता न ज्ञान मार्गो का,
जो कुछ सुनते आस्था रखकर, अनुसरण करे वे उस पथ का ।
होती है फलीभूत वाणी अपने गुरुओं की उन सबको,
वे भी बन्धन से मुक्त हुए, सार्थक कर लेते जीवन को ।
गुरुओं पर श्रद्धा रखते जो, उपदेशों का पालन करते,
करते उपासना तन-मन से, उनके अन्तस प्रभु से जुड़ते ।
पा जाते वे प्रभु का प्रसाद, भर जाती ईश कृपा उर में,
शाश्वत जीवन को पा जाते, आ बसती मुक्ति खुले कर में।
गुरु करता सबका हित-चिन्तन, वह श्रेय मार्ग का चयन करे,
वह सही दिशा इंगित करता, वह प्राणों में नव प्राण भरे ।
वह सुलगाए हिय की बाती, वह सूरज की छवि दिखलाये,
वह पारस की बन रहे छुअन, जिससे जन कंचन बन जाये ।
कुछ पुरुष मन्दमति होते जो, वे जानकार गुरु चुन लेते,
करते उपासना वे उनकी, वे श्रवण-परायण जन बनते ।
गुरु-पद-सेवा, आज्ञानुसार, जीवन को कर लेते निर्मल,
तर जाते मृत्यु जगत से वे, मुँह की खाए प्रापंचिक दल ।
श्लोक (२६)
यह प्रकृति और यह जीवात्मा, दोनों ही तत्व अनादि रहे,
संयोग हुआ दोनों का तो, यह सृष्टि चराचर रुप धरे ।
क्षेत्रज्ञ पुरुष है, क्षेत्र प्रकृति, संयोग सृष्टि, यह समझ पार्थ
ये रुप प्रकृति के ही हैं दो, जो पराजीव, अपरा यथार्थ ।
हे भरतश्रेष्ठ यह बात समझ, जग का जो भी निर्माण हुआ,
हर वस्तु, रही जड़ या जंगम, जिसने भी जग में जन्म लिया।
क्षेत्रज्ञ, क्षेत्र के संगम से, पा रहे जन्म अपना जग में,
व्यापार अनात्म-आत्म का यह, चल रहा समूचे जीवन में ।
गोचर समस्त ये भूत व्यक्ति, रे प्रकृति-पुरुष से भिन्न नहीं,
क्षेत्रज्ञ क्षेत्र के संगम से, जग-जीवों की उत्पत्ति हुई ।
संयोग हवा का पाकर ज्यों, जल में लहरें पैदा होतीं,
या मेघ बरस जाने पर ज्यों, तृण लता, वनस्पतियाँ उगतीं।
अर्जुन कहते हम जिसे जीव, यह प्रकृति-पुरुष का जाया है,
क्षेत्रज्ञ क्षेत्र संयोग जनित, यह धूप-छाँह की माया है ।
इसमें अंश रहा ईश्वर का, रहा मरण धर्मी अविनाशी,
आत्मरुप पहिचान लिया तो, चेतन अमल सहज सुखराशी । क्रमशः….