‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 152 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 152 वी कड़ी ..

               त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’

अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’

श्लोक  (२४)

इस परमात्मा को पाने को, कितने ही जन साधन करते,

कोई विशुद्ध चित से ध्याते, अपने उर में दर्शन करते ।

कुछ ज्ञान योग का साधन कर, रे परम तत्व को पा जाते,

करने प्रसन्न परमात्मा को, निष्काम कर्म कुछ अपनाते ।

 

आत्मा द्वारा आत्मा में कुछ, आत्मा का ध्यान किया करते,

कुछ ज्ञान मार्ग पर चलते जो, वे ज्ञान योग अपना चलते ।

कुछ कर्मयोग का पालन कर, आत्मा का करते हैं दर्शन,

ये मार्ग मुक्ति के हैं विभिन्न, जिन पर चलते हैं साधक गण ।

 

परमात्मा आत्मा का अभेद, साधन कर साधक पाता है,

जो निर्गुण निराकार ब्रह्म, उसमें वह ध्यान लगाता है ।

जो निराकार का सगुण रुप, या सगुण ब्राह्म साकार भजें,

वे भी चाहें तो निराकार, निर्गुण के अनुभव में उतरें

 

सम्पूर्ण पदार्थ जगत के थे, झूठे मृग-तृष्णा-जल समान,

या स्वप्न-सृष्टि के जैसे ये, मिथ्या नभ के उड़ते विमान ।

सर्वत्र एक सत्ता उसकी, जिसका यों जागृत रहे ज्ञान,

वह आत्मा देखे आत्मा में, पालन कर साधन के विधान ।

 

जो एक चतुष्टय साधन का, उसमें विवेक, वैराग्य भाव,

षडसम्पत्ति एवं मुमुक्षत्व, इन चारों का अर्जित प्रभाव ।

सत असत, नित्य क्या, क्या अनित्य, करता विवेक इसका निर्णय,

वह आत्म-अनात्म विवेचन कर, गह लेता क्षीर नीर को तज ।

 

हो रहें पृथक सत और असत, रहता न राग फिर जड़ जग में,

भोगों की अभिलाषा मिटती, वैराग्य जागता जीवन में ।

यह अनासक्ति का भाव, पार्थ, मन में न द्वेष या घृणा रहे,

यह रही भीतरी मनोदशा, जिसमें न राग का लेश रहे ।

 

वैराग्य, विवेक सधे जिनको, मिलती सम्पत्ति परम पावन,

षड सम्पत्ति जिसका नाम रहा, शम, दम के गुण, उपरति पालन ।

धारण हो रहे तितिक्षा का, श्रद्धा का, मिलना समाधान

षडसम्पत्ति से सम्पन्न रहे, साधक जो होता ज्ञानवान ।

 

मन शान्त और निर्मल रहता, निग्रह इन्द्रिय का प्राप्त उसे,

उपरति भोगों से हो जाती, हर कष्ट झेलना सहज उसे ।

बन साक्षी सब हलचल देखे, विश्वास अडिग रहता मन में,

श्रद्धा, गुरु, साधन, शास्त्रों में, जो ज्योति जगाती जीवन में।

 

बल, विद्या बुद्धि ज्ञान गौरव सौंदर्य, त्याग ऐश्वर्य मान,

परमात्म तत्व प्रतिफलित हुआ करता साधक को भासमान

साधक जीवन विजन में अपने साधन पवित्र अपनाता है,

होता उपलब्ध साधक उसको, वह सिद्ध काम हो जाता है।

 

परमात्मा में मन बुद्धि, बसे हो एक लक्ष्य प्रभु का दर्शन,

यह समाधान उपलब्ध करे, हो रहे विभाषित प्रभु से मन ।

साधक हो मुक्त अविद्या से, अपनी आत्मा से जुड़ जाता,

साधन हो जाता पूर्ण यहाँ, वह मोक्ष परम पद पा जाता । क्रमशः….