त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’
अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’
श्लोक (२२)
आधार बने लतिका का पर, उसके दोषों से विलग रहे,
आश्रय पा प्रकृति फले-फूले, पर उससे पुरुष अलिप्त रहे ।
वह मेरु समान रहा तट पर, जो नदी प्रकृति की बना रही,
उसको न प्रवाह बहा पाता, उसकी छाया भी नहीं बही ।
जो प्रकृति कार्य प्रारंभ करे, वह साथ उसी के मिट जाता,
लेकिन न पुरुष पर कार्यों का, कोई प्रभाव पड़ने पाता ।
वह रहा प्रकृति का भर्त्ता, पति, उस पर अवलम्बित प्रकृति रही,
उसकी ही सत्ता से जिसने, जग की यह रचना विशद रची।
कल्पान्त काल में प्रकृति सकल, लय पुरुष-उदर में हो जाती,
वह पुरुष रहे क्षेत्रज्ञ पार्थ, उसमें न विकृति कोई आती ।
परमात्मा वह तन में बसता, प्राकृत गतिविधि से विलग रहे,
जो रहे चेतना प्रकृति साथ, उसको अमरत्व प्रदान करे ।
अर्जुन शरीर में जो आत्मा, वह परमात्मा से भिन्न नहीं,
तन की उपाधि से भेद हुए, इसलिए नाम हो गये कई ।
वह उपद्रष्टा, वह अनुमन्ता, वह भर्त्ता, भोक्ता, परमेश्वर,
वह परम तत्व अविकारी है, रचना करता है सो ईश्वर ।
परब्रह्म हुआ अन्तर्यामी, शुभ अशुभ कर्म देखे सबके,
उपद्रष्टा इससे कहलाया, वह बैठा बैठा सब देखे ।
सम्मति जो उससे मांग रहे, उनको सन्मार्ग दिखाता है,
अनुमति देता आवेदक को, वह अनुमन्ता कहलाता है।
वह विष्णु रुप रक्षण करता, पालन करता सारे जग का,
इसलिए उसे भर्त्ता कहते, जग जीता जिसका आश्रय पा ।
यज्ञों की हवि वह ग्रहण करे, देवों के रुप करे धारण,
भोगे जीवों सम भोगों को, भोक्ता कहलाता इस कारण ।
ब्रह्मादि ईश्वरों का नियमन, करता इसलिए महेश्वर है,
फिर भी यह सबके परे रहा, इस कारण यह सर्वेश्वर है।
परमात्मा जो है गुणातीत, कर रहे निमित्त नामधारी,
वह सत् चित् वह आनन्द पार्थ, वह सदा सर्वदा अविकारी।
आत्मा मनसिज से भिन्न रहा, आत्मा जो बनता है साक्षी,
आत्मा जो बन क्षेत्रज्ञ रहा, आत्मा जिससे अनुमति आती।
सबको सम्हालने वाला जो, उपभोगों को करने वाला,
आत्मा परमात्मा में विकसित होनेवाला खोने वाला ।
जीवात्मा के संग हर तन में, भोक्ता है एक परात्पर भी,
जो सबका परम पिता साक्षी, ईश्वर जो अनुमति दाता भी ।
जीवात्मा से जो भिन्न रहा, माया के परे कि अनुमन्ता,
हर आत्मा के जो साथ रहा, जीवात्मा पालित, वह भर्त्ता ।
श्लोक (२३)
माया परमात्मा जीवात्मा, तीनों का क्या सम्बन्ध रहा,
इसका हो विमल ज्ञान जिसको, परिवेश मुक्ति का प्राप्त रहा ।
भव बन्धन में जीवात्मा का, हो गया पतन क्यों जब जाने,
वह मार्ग मुक्ति का पा जाता, अपना स्वरुप जब पहिचाने ।
पूर्वोक्त पुरुष जिसने जाना, जानी गुण सहित प्रकृति जिसने,
वह मुक्त भाव कर्तव्य करे, बन्धन न कर्म उसको अपने ।
क्षेत्रज्ञ अभेद दिखे उसको, उसको दीखें प्राकृत-विकार,
जो पुनर्जन्म का हेतु बनें, वे धारायें वह करे पार
जो साथ गुर्णा के आत्मा का, अरु प्रकृति गुणों को जान रहा,
चाहे जो कार्य करे पर वह, उनके भोगों से परे रहा ।
चाहे जो दशा रहे उसकी, चाहे जैसा भी काम रहे,
वह जन्म नहीं लेता अर्जुन, वह भव-माया से मुक्त रहे ।
है पुरुष रुप शुद्धवस्था, गुण कर्म प्रकृति के हैं विकार,
नाना रुपों, छायाओं में, विकसित है जिसका सत्यजाल ।
मैला होता आकाश नहीं, उड़ते रहते रजकण अनेक,
वह भूले-भटके नहीं कभी, जागृत रहता जिसका विवेक । क्रमशः….