‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 184..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 184 वी कड़ी ….

पञ्चदशोऽध्यायः – “पुरुषोत्तम योग’ अध्याय पंद्रह – ‘जीवन का वृक्ष’

क्षर पुरुष (क्षेत्र), अक्षर पुरुष (क्षेत्रज्ञ), और पुरुषोत्तम (परमेश्वर)- तीनों का वर्णन, क्षर और अक्षर से भगवान किस प्रकार उत्तम हैं, किसलिए पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आदि- पुरुषोत्तम योग,

श्लोक  (१८)

विनश्वरता को अभिमुख हो, जब जीवात्मा होती सचेष्ट,

अस्तित्व नित्य अपना पाती, अपनी गरिमा पाती यथेष्ट ।

ये दोनों नहीं विरोधी हैं, परमात्मा, एक अनेक रहा,

वह रहा अजन्मा अविकारी, बहु धाराओं में किन्तु बहा ।

 

यह गतिमय जगत-सृष्टि प्रभु की, अपनाता इसको परमात्मा,

वह इसमें बसकर कर्म करे, बनकर रहता है जीवात्मा ।

हृदयों में सबके वास करे, वह सारे जग का है स्वामी,

वह परा पुरुष, वह पुरुषोत्तम, घट घटवासी, अन्तर्यामी ।

 

वह चला रहा है सन्सृति को, वह अक्षर-क्षर को मिला रहा,

लौकिक से कालातीत तलक, सब अपने हाथों सजा रहा ।

अध्यात्म प्रकृति परमात्मा की, दूजी परमात्मा की माया,

क्षर-अक्षर ये दोनों अवयव, हैं परमात्मा की ही काया ।

 

अक्षर की माया शक्ति इसे, ईश्वर की शक्ति कहा जाता,

भगवान शुद्ध परमात्मा को, परिमिति से मुक्त रखा जाता ।

क्षर-अक्षर सार तत्व जग के, दोनों के ऊपर परमात्मा,

होकर वियुक्त परमात्मा से, जग अपना रचता जीवात्मा ।

श्लोक   (१९-२०)

मैं क्षर के ऊपर हूँ अर्जुन, मैं अक्षर से भी ऊपर हूँ,

कहते हैं वेद ब्रह्म मुझको, जग का मैं ही जगदीश्वर हूँ।

जो भ्रान्तिरहित होकर मुझको, पुरुषोत्तम को पहिचान सका,

समझो सब कुछ वह जान चुका, कुछ नहीं जानने शेष रहा।

 

हे अर्जुन पूर्ण समर्पण से, करता है जो मेरी पूजा,

जिसके मन में मेरे सिवाय, रहता है नहीं भाव दूजा ।

पा गया भक्ति, पा गया ज्ञान, तरु का रहस्य वह समझ गया,

परमात्मा जिसमें बसता है, देखे वह ऐसा जगत नया ।

 

हे पाप रहित अर्जुन तुझको, सिद्धान्त गूढ़ यह समझाया,

परमात्मा को जाना जिसने, जिसने पुरुषोत्तम को पाया ।

वह शरणागत होकर रहता, वह पार ब्रह्म को पहिचाने,

है अंश उसी परमात्मा का, वह उससे अलग नहीं माने ।

 

है अन्तःकरण शुद्ध निर्मल, उपदेश योग्य तुम हो अर्जुन,

तुम हो सुपात्र यह गुहयज्ञान, कर सकते हो मन में धारण ।

परमेश्वर के गुण बतलाये, यह ज्ञान रहा अति गोपनीय,

यह नहीं अपात्र के योग्य रहा, यह सार शास्त्र का धारणीय ।

 

वह सर्वभाव से भजता है, मुझको श्रद्धापूर्वक अर्जुन,

क्षर से अतीत मुझको जाने, अक्षर से जाने वह उत्तम ।

पुरुषोत्तम हूँ यह पहिचाने, ये लक्षण हैं उस ज्ञानी के,

वह सदा करे मेरी सेवा, सोते जगते मन-वाणी से ।

 

हे अर्जुन सचमुच जो मुझको, पुरुषोत्तम जैसा जान रहा,

वह जान रहा मानो सब कुछ, मुझको जो यों पहिचान रहा ।

वह पूर्ण रुप से मुझको ही, भजता वह भक्ति परायण है,

हो चुका भक्त वह पूर्णकाम, उसका यह सहज समर्पण है।

 

वैदिक शास्त्रों में वर्णित जो, अति गोपनीय वह परम सार,

मैंने तुझ पर है प्रगट किया, हे अनघ परंतप हो उदार ।

जो जाने इसको सिद्ध हुआ, सबसे बढ़कर वह बुद्धिमान,

होता कृतार्थ उसका जीवन, ये आप्तवचन बनते प्रमाण ।

।卐। इति पुरूषोत्तम योग नामे पञ्चदशोऽध्यायः ।卐।