पञ्चदशोऽध्यायः – “पुरुषोत्तम योग’ अध्याय पंद्रह – ‘जीवन का वृक्ष’
क्षर पुरुष (क्षेत्र), अक्षर पुरुष (क्षेत्रज्ञ), और पुरुषोत्तम (परमेश्वर)- तीनों का वर्णन, क्षर और अक्षर से भगवान किस प्रकार उत्तम हैं, किसलिए पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आदि- पुरुषोत्तम योग,
श्लोक (१८)
यह दशा जीव की अलग रही, खुद ब्रह्म नहीं हो पाता है,
मिट्टी जो गुण से हो विहीन, क्या उसे कुछ बन पाता है ?
अज्ञान अमावस्या के सम, है कलारहित विरहित गुण से,
विपरीत ज्ञान के निद्रालस, आभास जिसे विस्मृत रहते ।
‘क्षर’अक्षर माया के स्वरुप, जो विरल रही या अतिप्रगाढ़,
जो क्षरण युक्त, अक्षरण रही, पलता है जिसमें ‘बीज भाव’ ।
अज्ञान युक्त चैतन्य उसे, ही अक्षर पुरुष कहा जाता,
अज्ञान, ज्ञान का है विलोम, यह मिटा कि ज्ञान भी मिट जाता।
जब आग पकड़ती ईधन को, ईधन सारा जल जाता है,
ईधन के साथ आग का भी, अस्तित्व पूर्ण जल जाता है।
जो आग मदिरागत रहती है, वह साथ मदिरा के मिट जाती,
रहती न मदिरा, रहती न आग फिर बात न शब्दों में आती ।
‘क्षर’ ‘अक्षर’ दोनों पुरुषों की, होती हैं अपनी सीमायें,
इनके ऊपर पर पुरुष रहा, जिसका न पार कोई पायें ।
कहते है उसको परमात्मा, जिसमें लय द्रष्टा-दृश्य हुए,
‘ना’ होना ‘जहाँ’ रहे होना, उससे बढ़कर कुछ नहीं रहे।
क्षर अक्षर अपरा-परा कहो, अधिभूत कहो, अध्यात्म कहो,
या कहो क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ उन्हें, या माया मायाधीश कहो ।
इनके ऊपर है परम पुरुष, दोनों से भिन्न, श्रेष्ठ सबसे,
दोनों का वह नियामक स्वामी, है परम विलक्षण वह सबसे ।
पुरुषों की रहीं श्रेणियाँ दो, हैं नाशवान हैं अविनाशी,
भूतों के तन सब नाशवान, जीवात्मा लेकिन अविनाशी ।
इन दोनों से है भिन्न एक, वह उत्तम पुरुष अनन्य रहा,
तीनों लोकों में कर प्रवेश, वह परिपालक सर्वत्र रहा ।
अविनाशी है वह परमेश्वर, परमात्मा उसको कहा गया,
उसको ही पुरुषोत्तम कहते, उससे बढ़कर कुछ नहीं रहा ।
‘क्षर’प्रकृति और ‘अक्षर’ आत्मा, दोनों पर करता वह शासन,
वह एक देव सबसे ऊपर, कहते हैं जिसको ‘पुरुषोत्तम’ ।
जड़ वर्ग क्षेत्र से वह अतीत, जीवात्मा से भी है उत्तम,
लोकों में वह सबका स्वामी, वेदों में है वह पुरुषोत्तम ।
यह तत्व समझता जो ज्ञानी, सर्वज्ञ सदा मुझको भजता,
मुझ वासुदेव में ही उसकी, होती है एक निरन्तरता ।
अर्जुन तू है निष्पाप तुझे, यह गोपनीय जो बात कही,
यह जग से मुक्ति प्राप्त करने, साधक के हाथों युक्ति रही।
यह अति रहस्यमय साधन है, ज्ञानी कृतार्थ हो जाता है,
आता जो मेरी शरण पार्थ, वह मुझे असंशय पाता है ।
जो वस्तु जीव जगतीतल पर, अस्तित्व रहा सब नाशवान,
कूटस्थ अनश्वर वह जग में, जो दीख रहा है प्राणवान ।
दो पुरुषों में संसार बटा, है एक नाश जिसका होता,
वह रहा दूसरा अविनाशी, जिसका न विनाश कभी होता ।
क्षर प्रकृति रही यह नाशवान, जीवात्मा अक्षर पुरुष पार्थ,
क्षर अक्षर दोनों जगत रचें, दोनों रहते हैं साथ-साथ ।
जैसे रहता आकाश एक, दिन और रात उसमें रहते,
है पुरुष तीसरा पुरुषोत्तम, क्षर-अक्षर पुरुष जहाँ रहते ।
परिवर्तनशील जगत में जो, है विद्यमान आत्मा, ‘क्षर’ है,
परिवर्तित होता नहीं रुप, जिसका वह आत्मा, ‘अक्षर’ है।
इन दोनों से है भिन्न एक, आत्मा जो होती सर्वोत्तम,
लोकों का ईश्वर कहो उसे, या परमात्मा या ‘पुरुषोत्तम’ ।
तीनों लोकों का करता है पालन पोषण वह परमेश्वर,
अपने में धारण करता है, बसता है वह उनके भीतर ।
चैतन्य मूलतः है अद्वैत, लेकिन उपाधि से युक्त हुआ,
धारण करता है द्वैत रुप, माया जग से संयुक्त हुआ ।
है केन्द्र ब्रह्म का जीवात्मा, जो नानाविध जग में उभरे,
वह दिव्य चेतना का केवल, एकाध पक्ष ही व्यक्त करे ।
सम्बन्ध वजगत से रखता है, परमात्मा के आश्रित रहकर,
पा रहा पूर्णता वह अपनी, अभिव्यक्त प्रकृति में ही होकर ।
रखता है मनोवृत्ति उज्जवल, जब जीव ब्रम्हा के प्रति अपनी,
विकृति न प्रभावित कर पाती, उसकी छवि उभराती अपनी ।
जड़ता-प्रभाव से रहित हुआ, वह शुद्ध स्वरुप प्राप्त करता,
वह प्रगट करे परमात्मा को, या ब्रह्म रुप धारण करता । क्रमशः ….