पञ्चदशोऽध्यायः – “पुरुषोत्तम योग’ अध्याय पंद्रह – ‘जीवन का वृक्ष’
क्षर पुरुष (क्षेत्र), अक्षर पुरुष (क्षेत्रज्ञ), और पुरुषोत्तम (परमेश्वर)- तीनों का वर्णन, क्षर और अक्षर से भगवान किस प्रकार उत्तम हैं, किसलिए पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आदि- पुरुषोत्तम योग,
श्लोक (१५)
मैं अन्तःकरण प्राणियों का, बसता हूँ सभी प्राणियों में,
मुझसे ही स्मृति ज्ञान रहा, मुझसे ही विस्मृति जीवन में।
मैं एकमात्र जो ज्ञेय रहा, यह सार वेद का बतलाता,
वेदान्त रचयिता हूँ मैं ही, मैं ही सब वेदों का ज्ञाता ।
हृदयों में सभी प्राणियों के, बसता अन्तर्यामी मैं ही,
मैं बनकर स्मृति, ज्ञान रहा, ऊहन को दूर करूँ मैं ही।
जाना जाता वेदों द्वारा, मैं ही ज्ञाता सब वेदों का,
वेदांत विषय का मैं कर्त्ता, मैं समाधान सब भेदों का ।
हृदयों में मेरा रहे वास, अन्तस विशुद्ध करते दर्शन,
मैं बोध ज्ञान का करवाता, मुझमें सुधियों का भंडारन
मैं तर्क वितर्क विपर्यय को, कर दूर अपोहन भाव बनूँ,
कर्मानुसार अन्तर्यामी, मन-भावों में मैं ही उभरुँ ।
जब मेघ घिरे रहते नभ में, सूरज का नहीं प्रकाश दिखे,
जब तक न बुद्धि हो शुद्ध विमल, मेरा न वहाँ आलोक दिपे।
ढँक जाता जब मेरा स्वरुप, दिखते हैं, केवल विषय-भोग,
सब मेरी इच्छा से होता, संयोग रहे या हो वियोग ।
अज्ञान ज्ञान के लिए पार्थ, मैं ही बन जाता हूँ कारण,
रस्सी में साँप दिखाई दे, रस्सी बनती उसका कारण ।
जो चले जानने वेद मुझे, मुझको न जानने पाए वे,
कितने ही पक्षों से साधा, शाखाओं में बँट आए वे ।
श्रुति सहित जगत है लीन जहाँ, वह आत्मज्ञान मैं हूँ अर्जुन,
जो आत्मज्ञान को जान रहा, वह ज्ञानी भी मैं हूँ अर्जुन ।
वेदों द्वारा जाने जाने के योग्य, रहा केवल मैं ही,
मैं ही हूँ रे वेदांत रुप, वेदों का ज्ञाता हूँ मैं ही ।
रब से मिले कि पश्चिम से, मिलने वाला सागर हूँ मैं,
है भरा हुआ जीवन का रस, माटी की वह गागर हूँ मैं।
हूँ शान्ति-भ्रान्ति मैं ही सबकी, सारे विवाद का समाधन,
निर्णय का और अनिर्णय का, हे पार्थ रहा मैं पर्यवसान ।
अश्वत्थ रुप संसार रहा, वैराग्य करे उसका छेदन,
परमात्मा को पा लेता वह, जो परमात्मा की गहे शरण ।
क्षर जीव रहा, अक्षर ईश्वर है, यह भेद जानता है ज्ञानी,
पुरुषोत्तम की महिमा अपार, उसको न जानता अज्ञानी ।
श्लोक (१६-१७-१८)
दो रहीं कोटियाँ जीवों की क्षर एक दूसरी अक्षर है,
क्षर जिसका होता रहे क्षरण, जो रहे नित्य वह अक्षर है।
प्राकृत जग के प्राणी हैं क्षर, इनमें विकार होता रहता,
अक्षर है प्राणी वे सारे, बैकुण्ठ जगत जिनको मिलता
क्षर-अक्षर दोनों से उत्तम, अविनाशी परमेश्वर होता,
वह पुरुष पुरातन मैं ही हूँ, जो इन सब लोकों में रमता ।
करके प्रवेश सब लोकों में, जो किए हुए उनको धारण,
जो स्वामी बनकर उनका सबका, करता रहता नित परिपालन ।
समता तुलना मेरी न रही, क्षर अथवा अक्षर जीवों से,
इन दोनों से हूँ मैं उत्तम, मैं परे रहा इन दोनों से ।
कोई न शक्तियों का मेरी जग में अतिक्रम करने पाये,
मुझको पुरुषोत्तम कहें वेद, कोई न पार मेरा पाये ।
‘क्षर पुरुष, किसे कहते उसके, लक्षण थोड़े में बतलाता,
सारा साकार जगत अर्जुन, जो वृक्ष रुप ‘क्षर’कहलाता ।
चैतन्य प्राप्त करता उपाधि, वह जीवात्मा बन जाता है,
विस्मृत करता अपना स्वरुप, वह संसारी हो आता है ।
होता रहता है सुखी-दुखी, ‘मैं’ ‘अरु’ मेरा से घिर जाता,
मैं हूँ गरीब, मैं हूँ अमीर, मेरी पत्नी, मेरा भ्राता ।
क्षेत्रज्ञ इसे ही कहा गया, इसको ही कहते जीवात्मा,
क्षर पुरुष उपाधि का करे क्षरण, तब पाये वह अपनी आत्मा ।
माया ‘अज्ञान’ जिसे कहते, वह ही ‘अक्षर’ कहलाती है,
हो ज्ञान नहीं जागृत जब तक, वह नहीं दूर हो पाती है।
अज्ञान युक्त आत्मा को ही, है ‘अक्षर-पुरुष’ कहा जाता,
अज्ञान, ज्ञान कार्यो से यह तादात्म्य नहीं करने पाता । क्रमशः….