अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’
श्लोक (२६-२७)
सम्पूर्ण जगत प्राकृत गुण की, माया के वश में काम करे,
मायिक जग की क्रियाओं का, उस पर न तनिक भी असर पड़े।
जो भक्ति योग का पालन कर, मुझसे अनन्य रखता नाता,
वह गुणातीत हो ब्रह्मभूत, हे अर्जुन मुझसे जुड़ जाता ।
सत्यानुभूति का प्रथम चरण, है ब्रह्मतत्व का ज्ञान पार्थ,
तदनन्तर तत्व-ज्ञान होता, जो चरण दूसरा रहा पार्थ ।
निर्विशेष ब्रह्म अरु परमात्मा, हैं आदि पुरुष के अंतर्गत,
मैं परम सच्चिदानंद प्रभू, मैं ही हूँ रे सबका आश्रय ।
धारण करता जो भक्तियोग, आस्था जिसकी रहती अनन्य,
मन से करता मेरी सेवा, मैं रहता हूँ उससे प्रसन्न ।
तीनों गुण के वह परे हुआ, उपयुक्त मुक्ति के हो जाता,
मैं अमर अनश्वर धर्म ब्राह्म, आनन्द धाम मेरा पाता ।
जो गुणातीत होता ज्ञानी, वह ब्रह्मभाव को पा जाता,
सच्चिदानंद को पाकर फिर, पाने को क्या कुछ रह जाता?
उस अविनाशी परमात्मा का, रे नित्य धर्म का अमृत का,
मैं ही हूँ आश्रय हे अर्जुन, आनन्द अखण्ड एकरस का ।
।卐। इति गुणत्रय विभाग योग चतुर्दशोऽध्यायः ।卐।