‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 172 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 172 वी कड़ी ….

अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’

श्लोक  (२६-२७)

सम्पूर्ण जगत प्राकृत गुण की, माया के वश में काम करे,

मायिक जग की क्रियाओं का, उस पर न तनिक भी असर पड़े।

जो भक्ति योग का पालन कर, मुझसे अनन्य रखता नाता,

वह गुणातीत हो ब्रह्मभूत, हे अर्जुन मुझसे जुड़ जाता ।

 

सत्यानुभूति का प्रथम चरण, है ब्रह्मतत्व का ज्ञान पार्थ,

तदनन्तर तत्व-ज्ञान होता, जो चरण दूसरा रहा पार्थ ।

निर्विशेष ब्रह्म अरु परमात्मा, हैं आदि पुरुष के अंतर्गत,

मैं परम सच्चिदानंद प्रभू, मैं ही हूँ रे सबका आश्रय ।

 

धारण करता जो भक्तियोग, आस्था जिसकी रहती अनन्य,

मन से करता मेरी सेवा, मैं रहता हूँ उससे प्रसन्न ।

तीनों गुण के वह परे हुआ, उपयुक्त मुक्ति के हो जाता,

मैं अमर अनश्वर धर्म ब्राह्म, आनन्द धाम मेरा पाता ।

 

जो गुणातीत होता ज्ञानी, वह ब्रह्मभाव को पा जाता,

सच्चिदानंद को पाकर फिर, पाने को क्या कुछ रह जाता?

उस अविनाशी परमात्मा का, रे नित्य धर्म का अमृत का,

मैं ही हूँ आश्रय हे अर्जुन, आनन्द अखण्ड एकरस का ।

।卐। इति गुणत्रय विभाग योग चतुर्दशोऽध्यायः ।卐।