‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 168 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 168 वी कड़ी ….

अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’

श्लोक  (१७)

अस्तित्व दिवस पाता अर्जुन, इसलिए कि सूर्य उसका कारण,

आलोक ज्ञान का खिले वहाँ, सतगुण का हुआ, जहाँ धारण ।

हे ज्ञानवन्त रजोगुण से, होता है पैदा लोभ भाव,

अज्ञान जनित तामस गुण है, तामस जन्मे अज्ञान भाव ।

 

सतगुण सम्पादित ज्ञान करे, बढ़ता है लोभ रजोगुण से,

अज्ञान, प्रमाद, मोह बढ़ता, जो मुक्त न हुआ तमोगुण से ।

सुख-शान्ति बढ़े जब सत बढ़ता, जब बढ़े रजोगुण तृषा बढ़े,

विषयों की तृप्ति न हो पाती, तम बढ़ने से व्यभिचार बढ़े ।

 

परिणाम मनोवैज्ञानिक ये जीवन में तीनों गुण लाते,

उत्थान-पतन के द्वार खुलें, जिन पर मानव बढ़ते जाते ।

सतगुण की दिशा प्रगति की है, अरु दिशा पतन की तमोगुणी,

राजस की दिशा मध्य की है, फल देती जैसी गई चुनी ।

 

रज, तम का दमन सत्व करता, उत्कृष सुलभ करता जन को,

सार्थक कर लेता जन्म मनुज, देदीप्यमान कर जीवन को ।

सात्विक प्रवृत्ति का व्रत लेकर, जो करते हैं जीवन यापन,

हो जाता उनको ज्ञान प्राप्त, सुख मय रहता उनका जीवन ।

श्लोक  (१८)

सात्विक व्यवहार रहे जिनका, आचार विचार पवित्र रहें,

सात्विक गुण में ही पगे हुए, वे अपने तन का त्याग करें।

स्वर्गादिक उच्च लोक पावें, वे सात्विक गुणधारी अर्जुन,

अधिकारी दिव्य लोक के वे, सुख-शान्ति भरा उनका जीवन ।

 

राजस गुणधारी मध्यम जग, फिर जन्म मनुज का ही पाते,

वे मृत्यु लोक से जाकर फिर, ले जन्म मनुज का फिर आते ।

तामस गुण धारी पर जघन्य, जब छोड़ा करते मानव तन,

वे नीच योनियों में जन्में, रौरव-दुख भोगें जनम जनम ।

 

तामस गुण में जिनकी प्रवृत्ति, उनकी गति रही अधोगामी,

नरकादि प्राप्त होते उनको, संगति गुण की दुख की खानी ।

आसुरी योनियों में जन्में, भोगें नानाविध कष्ट कई,

जब तक न मनुज का जन्म मिले, होता उनका उद्धार नहीं ।

 

इसलिए पार्थ यह उचित रहा, पहिले मनुष्य तम को जीते,

फिर जीत रजोगुण को अपने, कर चले कर्म सब सतगुण के ।

फिर करे त्याग सतगुण का भी, हो गुणातीत करके उपाय,

सोपानों में क्रमशः होता रहता है, आत्मा का विकास ।

 

आत्मा, निष्क्रिय जड़ता से उठ, अज्ञान पाश को तोड़ चले,

भौतिक सुख में होकर प्रवृत्त, नाता विराग से जोड़ चले ।

संघर्ष करे ऊपर उठने, पाने आनन्द, ज्ञान गरिमा,

आसक्ति कर्म की त्याग सके, पा ले फिर सतगुण की महिमा।

 

हो श्रेष्ठ वस्तुओं की चाहें, आसक्ति करे सीमित क्षमता,

सीमा का करता उल्लंघन, वह जो आसक्ति रहित बनता ।

लालायित रहें सुरक्षा को, भय मन का दूर न हो पाता,

रजगुण में रहकर भी मानव, अपने बन्धन न खोल पाता ।

 

हावी तम, रज, सत पर होकर, अवरोध किया करते पैदा,

नैतिक आदर्श छूट जाते, मालिन्य दोष होते पैदा ।

जब सन्त बने, जब गुणातीत, साधे ऊँची आध्यात्मिकता,

कर रहे सही निर्माण तभी तब रही हमारी सही दिशा ।

 

सतगुणी पुरुष जब देह तजें, स्वर्गादिक लोकों में जाते,

पर रजोगुणी मरकर फिर से, इस मृत्यु लोक में ही आते ।

नरकों में गिरते जाते हैं, जो तमोगुणी पुनि-पुनि गिरकर,

जो चाहे वह उद्धार करे, अपने गुण से ऊपर उठकर । क्रमशः….