अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’
श्लोक (१४)
सतगुणी पुरुष को उच्च लोक, लोकों का दिव्य भोग मिलता,
वह रज, तम गुण से मुक्त रहे, सतगुणी वृद्धि ‘सत’ की करता ।
प्राकृत जग की अशुद्धियों का, सतगुणी पुरुष परिहार करे,
पुण्यात्माओं को प्राप्त लोक, वह ब्रह्म लोक जन लोक वरे ।
सतगुण प्रधानता में अर्जुन, पाता जो मृत्यु देहधारी,
वह दिव्य आत्माओं जैसा, लोकों का होता अधिकारी ।
जो दैवी विमल लोक उनमें, अपने उपयुक्त लोक पाता,
स्वर्गादिक लोकों से लेकर वह ब्रह्मलोक को पा जाता ।
श्लोक (१५)
यदि बुद्धि रजोगुण की होती, तो मरकर वह फिर मनुज बने,
कर्मों में जो आसक्त रहे, उस मानव कुल में फिर जन्मे ।
आचरण सुधार न पाया जो, मरता होकर जो तमोगुणी,
पशु मूढ़ योनियों में जन्मे, उस तमोगुणी की गति बिगड़ी ।
परिणाम गुणों की बढ़ती के, होते हैं अलग-अलग अर्जुन,
गति बिगड़े अथवा बनती है, सतगुण की घट बढ़ के कारण।
कोई गुण कब क्यों घटता है, या कोई गुण क्यों बढ़ जाता,
यह है साधारण बात, पार्थ, इसका कारण मैं बतलाता ।
श्लोक (१६)
सात्विकता शुद्धि प्रदान करे, दुःख प्रतिफल राजस कर्मो का,
तामस से बस अज्ञान बढ़े, पातक फल रहा कुकर्मों का ।
परिणाम गुणों के सुख दुखमय, चुनता चलता जग में प्राणी
उद्धार न उसका हो पाता, जो बना रहे नित अज्ञानी ।
अच्छे कर्मो का फल अच्छा, सात्विक अरु निर्मल कहा गया,
राजसिक कर्म का फल है दुख, जो नहीं कर्म से अलग रहा ।
अज्ञान रहा फल कर्मो का, जो रहे तामसिक, दुर्निवार,
कर्मो का गुण पर असर पड़े, गुण में करते पैदा विकार ।।
कहलाता सुकृत पुण्य कर्म, उत्पन्न कर्म जो सतगुण से,
राजस क्रियाओं की तुलना, हो सकती विषल इन्दोरन से।
दिखने में सुन्दर मन भावन, खाने में कड़वी जहरीली,
क्रियाओं का फल केवल दुख, ऊपर मनमोहक चमकीली।
जिस तरह कलम विष की रोपें, अंकुर विषय के ही आते हैं,
विष का ही फल फलता उससे, ऐसे ही तम के नाते हैं ।
तामस की गतिविधियाँ सारी, अज्ञान रुप फल देती हैं,
अज्ञान-पेड़ में उपज रहीं, अज्ञान शाख पर फलती हैं। क्रमशः….