चतुर्दशोऽध्यायः – ‘गुणत्रय विभाग योग’
अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’
श्लोक (१-२)
भगवनानुवाच :-
मिटा उनके घर का घटाकाश, हो जाता महाकाश अर्जुन,
मिल ज्योति से महा-ज्योति का, कर लेती आकार ग्रहण ।
ब्रह्राज्ञ पुरुष में द्वैत नहीं, केवल ऐकत्व बोध लहरे,
कोई न नाम या अर्थरूप, मैं तुम का भेद कहाँ ठहरे?
होता प्रारम्भ सृष्टि का जब, उसको न जन्म लेना पड़ता,
जिसका न जन्म हो सका भला, क्या उसको प्रलय मार सकता?
मुनिगण जिस पथ को अपनाकर, उठ गये धरातल से ऊँचे,
जीवन में परम सिद्धि पाए, वह श्रेष्ठ ज्ञान कहता तुझसे ।
इसका आश्रय पाकर ज्ञानी, मेरे स्वरुप वाले बनते,
वे पहिले रहे प्रलय के भी, वे बाद प्रलय के भी रहते ।
जब विलय-प्रलय आने को हो, वे रंचक नहीं दुखी होते,
सब साथ प्रलय के मिट जाता, वे मेरे साथ शेष रहते ।
शाश्वत जीवन, यह अन्त नहीं, पर ब्रह्म अलख में मिट जाना,
यह आत्मा का होकर स्वतन्त्र, है सार्वभौमिता को पाना ।
अप्रभावित सृष्टि-प्रलय से जो, गतिविधियों से ऊपर उठना,
होना सचेत परमेश्वर में, उसका स्वरुप धारण करना ।
जो विविध रुप से व्यक्त ब्रह्म, उसमें समानता है गुण की,
वह ही समान धर्मता है, प्रगटन विधेय विभूतियों की ।
अस्तित्व न जिसमें परिवर्तन, ऐसा पा जाता है ज्ञानी,
सादृश्य मुक्ति उपलब्ध करे, बनता समानधर्मी ज्ञानी ।
वह बाहृय चेतना-जीवन में अनुभव परमात्मा का करता,
सहधर्मी बन रहता प्रभु का, गुण की समानता से जुड़ता ।
उन्नति वह करता जाता है, पा लेता मुक्ति बन्धनों से,
आनन्द मग्न रहता हरदम, अप्रभावित रहे क्रन्दनों से ।
यह साथ गुणों का ही अर्जुन, कारण है विविध योनियों का,
जो पुरुष अतीत गुणों से हो, वह ही वास्तविक जीवन पाता ।
वह महासर्ग में जन्म न ले, वह पीड़ित नहीं प्रलय से हो,
अच्छा या बुरा भाव जग का, रे विचलित करे न फिर उसको । क्रमशः….