‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 159 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 159 वी कड़ी ..

              चतुर्दशोऽध्यायः – ‘गुणत्रय विभाग योग’

अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’

श्लोक  (१-२) 

भगवनानुवाच :-

मिटा उनके घर का घटाकाश, हो जाता महाकाश अर्जुन,

मिल ज्योति से महा-ज्योति का, कर लेती आकार ग्रहण ।

ब्रह्राज्ञ पुरुष में द्वैत नहीं, केवल ऐकत्व बोध लहरे,

कोई न नाम या अर्थरूप, मैं तुम का भेद कहाँ ठहरे?

 

होता प्रारम्भ सृष्टि का जब, उसको न जन्म लेना पड़ता,

जिसका न जन्म हो सका भला, क्या उसको प्रलय मार सकता?

मुनिगण जिस पथ को अपनाकर, उठ गये धरातल से ऊँचे,

जीवन में परम सिद्धि पाए, वह श्रेष्ठ ज्ञान कहता तुझसे ।

 

इसका आश्रय पाकर ज्ञानी, मेरे स्वरुप वाले बनते,

वे पहिले रहे प्रलय के भी, वे बाद प्रलय के भी रहते ।

जब विलय-प्रलय आने को हो, वे रंचक नहीं दुखी होते,

सब साथ प्रलय के मिट जाता, वे मेरे साथ शेष रहते ।

 

शाश्वत जीवन, यह अन्त नहीं, पर ब्रह्म अलख में मिट जाना,

यह आत्मा का होकर स्वतन्त्र, है सार्वभौमिता को पाना ।

अप्रभावित सृष्टि-प्रलय से जो, गतिविधियों से ऊपर उठना,

होना सचेत परमेश्वर में, उसका स्वरुप धारण करना ।

 

जो विविध रुप से व्यक्त ब्रह्म, उसमें समानता है गुण की,

वह ही समान धर्मता है, प्रगटन विधेय विभूतियों की ।

अस्तित्व न जिसमें परिवर्तन, ऐसा पा जाता है ज्ञानी,

सादृश्य मुक्ति उपलब्ध करे, बनता समानधर्मी ज्ञानी ।

 

वह बाहृय चेतना-जीवन में अनुभव परमात्मा का करता,

सहधर्मी बन रहता प्रभु का, गुण की समानता से जुड़ता ।

उन्नति वह करता जाता है, पा लेता मुक्ति बन्धनों से,

आनन्द मग्न रहता हरदम, अप्रभावित रहे क्रन्दनों से ।

 

यह साथ गुणों का ही अर्जुन, कारण है विविध योनियों का,

जो पुरुष अतीत गुणों से हो, वह ही वास्तविक जीवन पाता ।

वह महासर्ग में जन्म न ले, वह पीड़ित नहीं प्रलय से हो,

अच्छा या बुरा भाव जग का, रे विचलित करे न फिर उसको । क्रमशः….