चतुर्दशोऽध्यायः – ‘गुणत्रय विभाग योग’
अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’
श्लोक (३-४)
पा जाता है जो पूर्ण ज्ञान, वह पाता दिव्य प्रकृति मेरी,
हो जाता मुक्त बन्धनों से, पाता समानता वह मेरी ।
वह निष्ठ ज्ञान में, जन्म नहीं लेता, आता जब सृष्टिकाल,
व्याकुल वह होता नहीं तनिक, जब घिर आता है प्रलयकाल ।
कहते हैं जिसको महत ब्रह्म, यह मेरी मूल प्रकृति अर्जुन,
यह योनि समस्त प्राणियों की, जो करती रहे गर्भ धारण ।
इसमें मैं गर्भाधान करूँ, ब्रहाण्डो का होता प्रजनन,
उत्पत्ति प्राणियों की होती, संयोग करे जब जड़ चेतन ।
माया यह महत तत्व अर्जुन, कार्यात्मक जग से बहुत बड़ी,
कोई करता अव्यक्त इसे, यह परम प्रकृति भी कही गई ।
अज्ञान नाम इसका ही है, जो निद्रावस्था में रहती,
चैतन्य बने क्षेत्रज्ञ पार्थ, जब उसे घेर माया रहती ।
अज्ञान दूर होता दृग से, जब आत्म रुप का दर्शन हो,
खोजे जो कर में दीप लिए, क्या अन्धकार मिलता उसको?
जागृत न रहा स्वप्नावस्था, अज्ञान कि सन्धिकाल ऐसा,
जब दिवस नहीं, जब रात्रि नहीं, वह सायंकाल निजात्मा का।
क्षेत्रज्ञ भूलता रहे ज्ञान, अरु बढ़ा चले प्रवृत्ति जग में,
संयोग यहीं चैतन्य करे, माया से युक्त सुप्त जग में ।
जब आत्मरूप से फिसल दृष्टि, कल्पित दृश्यों को सजा चले,
माया का मनमोहक आनन, नाना रुपों को जगा चले ।
जब सोता मैं माया जागे, माया मेरा ही अंग रही,
अपने गुण से यह जगत रचे, यह मुझसे कभी न विलग रही।
संयोग आत्मसत्ता से कर, आश्रय से करे गर्भ धारण,
तब महत ब्रह्म या प्रकृति-उदर से होता है जग का प्रजनन ।
संयोग आत्म अरु प्रकृति करें, पैदा होता है बुद्धि भाव,
जो रजोगुणी मन विकसित कर, ममता को लेकर चले साथ।
करता है अहंकार पैदा-मन,ममता का संयोग मिलन
, वह महाभूत, तन्मात्रा के, इन्द्रिय-जग का, कारक-कारण ।
ये पंचमभूत ये, विषय भोग, इन्द्रियजग इनका क्षोभ-भाव,
सत रज गुण तम पैदा करता, पैदा करता नाना विकार ।
उत्पन्न वासना होती है, लेते हैं जीव अनेक जन्म,
उत्पन्न योनियाँ होती हैं, प्रजनन का चलता क्रम अखण्ड । क्रमशः….