चतुर्दशोऽध्यायः – ‘गुणत्रय विभाग योग’
अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’
श्लोक (३-४)
अनुरुप बीज अरु पानी के, अंकुर, अंकुर से वृक्ष उगे,
वृक्षों की शाख-प्रशाखा से, बीजांकुर नये नये उभरे ।
मेरी संगति से माया में, कितने ही विश्वांकुर उगते,
हरियाते रहते लोक-वृक्ष, जिनसे नव बीज रहें झरते ।
यह सृजनशील जो गर्म गोल, वह भी आकार विभिन्न धरे,
अंडज, स्वेदज, उद्भिज, जारज, उनसे अंकुर, अवयव उपजे ।
रे मणिज गर्भरस एक रहा, तम, रज के गुण से जब मिलता,
स्वदेज अवयव उत्पन्न करे, जल तेज अंश जिसमें रहता ।
जल पृथ्वी अंश विशेष रहे, निकृष्ट तमोगुण हो प्रधान,
उदभिज पैदा होता उससे, यह सहज भाव की दृष्टि जान ।
सहयोग प्राप्त कर मन मति का, इन्द्रियाँ किया करती संगम,
सत रज से यह संयोग पार्थ, जारज का बनता है कारण ।
पिण्डज प्रवृत्ति जग-जीव सृष्टि, अवयव जिसका, बालक सुधीर,
अपने शरीर में चार तरह, के करता है धारण शरीर ।
दो हाथ रहे अति दीर्घ सबल, कुछ भी न जिसे वे पा न सकें,
दो पैर न दूर जिन्हें कुछ भी, ऐसी न जगह वे जा न सकें ।
है वृहत पेट जिसका प्रवृत्ति, निवृत्ति पीठ सीधी जिसकी,
है महा प्रकृति का सिर विशाल, फल-ग्रीवा साध जिसे रखती ।
जो अष्ट योनियाँ देवों की, कटि के ऊपर उनका निवास,
सबसे ऊँचा जो स्वर्ग लोक वह निकट कष्ठ के करे वास ।
भूलोक मध्य में बसा हुआ, कटि के नीचे पाताल बसा,
तीनों लोकों का जो प्रसार, वह बालक की बाल्यावस्था ।
चौरासी लाख योनियों का, तन के रंध्रों, रंध्रों में वास रहा,
बहुविध इसका श्रृंगार हुआ, ज्यों ज्यों यह बालक हुआ बड़ा।
यह पुष्ट हुआ, बलवान हुआ, माया-माँ का कर दुग्ध पान,
ब्रम्हा, विष्णु, शंकर इसके, हैं सुबह दोपहर और साँझ ।
कल्पान्त प्रलय की शैय्या पर, करता है यह बालक विराम,
कल्पोदय पर जागे फिर से, लेकर नव-क्रीड़ा का विहान ।
संकल्प विकल्प रहे प्रियजन, है अहम् खेल का प्रिय साथी,
सत-ज्ञान प्राप्त बालक करता, जागे जब अन्तस की बाती ।
रह जाता द्वैत न जब मन में, मेरी माया का खुले भेद,
ज्ञानीजान इसको जान रहे, मेरी माया मुझसे अभेद ।
होते यदि उपज प्रकृति ही हम, शाश्वत पद कभी न पा पाते,
अभिव्यक्ति ब्रह्म की जग सारा, अस्तित्व फलित उससे होते ।
जग के प्रसंग में विश्वात्मा, वह हिरण्यगर्भ बन जाता है,
फिर बीज रुप वह ही जग के, सारे पदार्थ उपजाता है।
क्षेत्रज्ञ क्षेत्र संयुक्त करूँ, पैदा हो हिरण्यगर्भ उससे,
मैं उस अनात्म में आत्म बीज, रोपूँ जीवन जागे जिससे ।
कारण मैं व्यष्टि जन्म का हूँ, सम्हाल रहा नश्वर जग को,
क्रीड़ा असीम की सीमित पर, मैं सृष्टि हेतु मैं लय, जग को ।
परमात्मा ही है शून्य अगम, जिससे उत्पन्न जगत सारा,
वह बीज असत में डाल रहा, बस रहा जगत जिसके द्वारा ।
यह है असीम जग के ऊपर, परमात्मा की क्रीड़ा असीम,
पशु पक्षी मनुज, देव जीवन, जग सारा है जिसके अधीन ।
हे अर्जुन विविध योनियों में, जो भी प्राणी उत्पन्न हुए,
उन सबकी माता प्रकृति रही, वे महत्तत्व से ही जन्में ।
अपरा अरु परा प्रकृति मेरी, वह रही जगत-जननी माता,
मैं रहा बीज गर्भाधानी, इसलिए रहा मैं परमपिता ।
रहीं योनियाँ जो भी जितनी, जहाँ कहीं भी रही योनियाँ,
उनसे जो उत्पन्न रुप है, उनकी जो भी रहीं श्रेणियाँ ।
महत् ब्रह्मा है योनि सभी की, अर्जुन वही सभी की माता,
बीज योनि में डाल रहा मैं, मेरा रहा पिता का नाता ।
जीवित रुप प्रकृति के जाये, परमात्मा है पिता सभी का,
प्रकृति, प्रकृति है परमात्मा की, जिससे अलग न वह रह पाता।
परम पिता है परमात्मा ही, परमात्मा ही सबकी माता,
वही बीज है, वही गर्भ है, कारण कार्य वही बन जाता ।
आत्मा, परमात्मा की, सबके जीवन का जीवन बन जाती,
प्राण डालती जो जीवन में, वह चाहे वैसा बन जाती ।
वह जैसा चाहे जग नाचे, वह जो चाहे सो होता है,
ज्ञानी चिंतामणि को धारे, मूरख, इस मणि को खोता है ।
हे अर्जुन, मैं परम पिता हूँ, मेरी माया जग की माता,
भांति भांति है जग का जीवन, तन से ज्यों अंगों का नाता ।
अलग शरीरों में दिखता हूँ, बंधा हुआ पर गुण से सबमें,
विविध अनेक रुप जग-जीवन ऐक्य रहा मेरा जीवन में। क्रमशः….