‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 156 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 156 वी कड़ी ..

               त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’

अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’

श्लोक  (३१)

आत्मा यह दिव्य सनातन है, अरु यह माया के परे रही,

द्रष्टा शाश्वत तत्वों के जो, यह बात उन्होंने सत्य कही ।

प्राकृत शरीर में रहकर भी, यह आत्मा रही अलिप्त सदा,

कुछ भी यह करती नहीं कभी, कर्मों का फल न उसे लगता ।

 

हे कुन्ती पुत्र क्षेत्रज्ञ ईश, वह है अनादि, वह अविनश्वर,

यद्यपि शरीर में बसता वह, पर नहीं कार्य में वह तत्पर ।

करता है कोई कर्म नहीं, कर्मों में लिप्त नहीं होता,

इसलिए कि वह निर्गुण स्वरुप, वह परे परम अव्यय होता ।

 

प्रतिबिम्ब सूर्य का पानी में, पड़कर भी लिप्त नहीं रहता,

गीला न हुआ वह पानी से, वैसा ही परमात्मा रहता ।

रहता शरीर में वह लेकिन, वह प्रकृति-गुणों में लिप्त नहीं,

इसलिए कि वह था विद्यमान, जब प्रकृति न थी, गुण रहे नहीं ।

 

वह तब भी विद्यमान होगा, जब प्रकृति पूर्ण होगी विलीन,

वह निराकार वह निर्विकार, वह कभी न होता परिच्छिन्न ।

आत्मा का अव्यय रुप रहा, वह घटती नहीं न बढ़ती है,

वह कम या अधिक न हुई पार्थ, वह विकृत कभी न होती है।

श्लोक  (३२)

किस जगह नहीं आकाश पार्थ, किस जगह न उसका है प्रवेश,

सर्वत्र व्याप्त वह रहा किन्तु, किसके गुण का उसमें निवेश?

पूरे शरीर में रहकर भी, क्या संग-दोष से वह मलीन?

आत्मा क्षेत्रज्ञ शरीर क्षेत्र, आत्मा न देह के है अधीन ।

 

दीपक देता प्रकाश घर के, चलते प्रकाश में काम काज,

क्या दीपक करता दोष ग्रहण, दोनों में अंतर है अपार ।

चुम्बक लोहे को खींच रहा, संसर्ग हेतु आकर्षण काज

पर लोहा रहता लोहा ही, चुम्बक अस्तित्व अलग रखता ।

 

ज्यों सर्वव्याप्त आकाश रहा, सूक्ष्माति सूक्ष्म रहता अलिप्त,

त्यों तन में ब्रह्मभूत जीव, बसता पर इनसे वह अलिप्त ।

प्राकृत नेत्रों से आत्मा को, देखा न कभी भी जा सकता,

बसता देहों में वह असंग, अति सूक्ष्म न पाया जा सकता । क्रमशः….