‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 155 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 155 वी कड़ी ..

               त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’

अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’

श्लोक (२९)

करवाती प्रकृति कर्म सारे, जिसने यह आँखों देख लिया,

आत्मा कर्मो से विलग रहा, जिसने इस सच को लेख लिया।

साक्षी बनकर आत्मा देखे, वह दर्शक रहा, न अभिनेता,

ज्ञानी ऐसा न मरण पाता, जीकर वह नव-जीवन देता ।

 

सम्पूर्ण कर्म देहोत्पन्न, प्राकृत होते जो पुरुष लखे,

कर्ता न रहा उनका आत्मा, कर्मो को जो इस तरह लखे ।

वह रहा तत्वदर्शी अर्जुन, आत्मा कर्मो से परे रहा,

तन के स्वभाववश कर्म रहे, जीवात्मा उनसे मुक्त रहा ।

 

सम्पूर्ण कर्म को सब प्रकार, कर रही प्रकृति ऐसा जाने,

आत्मा तो रहा अकर्त्ता ही, इस सच्चाई को भी माने ।

जाने आत्मा है नित्य, शुद्ध, वह मुक्त बुद्ध अविभक्त रहा,

वह कर्त्ता नहीं, न भोक्ता ही, उसका दर्शन भ्रममुक्त रहा ।

 

जग-जीवों में न विभेद करे, जो आत्मा से आत्मा देखे,

समता का अनुभव करे सदा, वह अपने भवबन्धन मेटे ।

जलते हैं दीप विविध लेकिन, उन सबका तेज समान रहे,

सागर से मिल सागर होने, नदियों का जल अविराम बहे ।

 

आकाश नहीं करता है कुछ, जिसमें बादल तैरा करते,

घर कुछ भी करता नहीं काम, जो घर में रहते हैं, करते ।

मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, प्रकृति तत्व, खेला करते नित नये खेल,

आत्मा तो मेले का दर्शक, उसका खेलों से नहीं मेल ।

श्लोक  (३०)

जीवों के जो आकार विविध, इच्छाओं के परिणाम रहे,

सम्बन्ध न आत्मा का उनसे, जो यह देखे, जो यह समझे।

विस्तार रहा परमात्मा का, जीवों में जिसने यह देखा,

वह ब्रह तत्व को प्राप्त हुआ, उसने यथार्थ को ही लेखा ।

 

यह बात देख लेता जब वह, यह चीजों की जो पृथक दशा,

उस एक पुरुष में केन्द्रित है, जिसमें सारा विस्तार बसा ।

वह प्राप्त ब्रह्म को हो जाता, पा लेता मूल विविधता का,

एकत्व विराट रहा जिसमें, हो रहा विलय सीमितता का ।

 

वह ज्ञान दृष्टि जो यह देखे, आत्मा सब भूताकारों में,

परमात्मा के दर्शन होते, उसको जग के व्यवहारों में ।

रजकण हों या जल की लहरें, अवयव तन के, मन के विचार,

वह एक तत्व सबमें समान, रुपों में माया का प्रसार ।

 

ये भूत भाव सब पृथक रहे, पर सबमें परमात्मा बसता,

जग बसा हुआ परमात्मा में, सबको वह ही धारण करता ।

वह देखा रहा विस्तार सभी, यह दृष्टि बोध जिस क्षण जागा,

उस क्षण पा गया ब्रह्म को वह, कर गया पार जीवन बाधा । क्रमशः….