‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 147 ..

  1. मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 147 वी कड़ी ..

               त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’

अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’

श्लोक  (१६)

वह अलग-अलग सब जीवों में, लगता है पृथक-पृथक बसता,

पर परमात्मा अविभाज्य रहा, वह पूर्ण, विभागरहित रहता ।

सम्पूर्ण प्राणियों को पालक, वह रहा जन्मदाता सबका,

संहार वही सबका करता, वह ही है उद्धारक सबका ।

 

परमात्मा का एकत्व भाव, ज्यों महाकाश अविकल अखण्ड,

घट-घट का घटाकाश बनता, पर हर घट में रहता अखण्ड ।

लगता क्षेत्रज्ञ प्राणियों में, मानों रहता है बंट-बंट कर,

लेकिन प्रतीति है यह केवल, वह रहे अखण्ड पूर्ण अविकल ।

 

वह भूतभृत वह विष्णु प्रभा, वह रुद्र रुप संहार करे,

उत्पत्ति करे सारे जग की, पालन कर उसको बड़ा करे ।

अपने ही हाथों रुद्र बना, करता है वह जग का विनाश,

ब्रम्हा, विष्णु, शिव में उसका, पूर्णत्व सहित रहता निवास ।

 

वह विश्वरुप इस रचना का, है आदिभूत कारण अर्जुन,

जैसे समुद्र आधार रहा, लहरें जिस पर पाती जीवन ।

जितने भी प्राणिमात्र जग के, वह ही सबका आधार रहा,

ज्यों बाल, युवा, वृद्धावस्था, तीनों को तन ही साध रहा ।

 

उत्पत्ति-स्थिति अरु लय तीनों, ज्यों सुबह दोपहर और शाम,

परिवर्तन घटता रहे मगर, आकाश सदा रहता समान ।

तीनों कार्यों के जब त्रिदेव, लय होते रहता शून्य शेष,

वह महाशून्य में लय होता, जो ब्रम्ह, ज्ञेय अर्जुन विशेष ।

 

अविभक्त रहा, अविभाज्य रहा, पर वह विभक्त होता प्रतीत,

वह पैदा करे, करे पोषण, फिर करे नष्ट, यह रही रीत ।

फिर नये सिरे से ऐसा ही, रचना-विनाश का क्रम चलता,

हर वस्तु उसी से निकल रही, जिसको अपने में लय करता ।

श्लोक  (१७)

ज्योतिर्वानों का ज्योति स्त्रोत, माया के तम से परे रहे,

प्राकृत जग में वह ब्रम्ह-ज्योति, नित महत्तत्व से ढंकी रहे।

इसलिए अगोचर परमात्मा, घट-घट वासी अन्तर्यामी,

वह ज्ञान रुप, वह ज्ञेय रहा, पा लेता उसे तत्व ज्ञानी ।

 

रवि शशि, विद्युत, तारागण ये, सब बाहृय ज्योतियाँ हैं जितनी,

मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, ज्ञान, बोध, आध्यात्मिक जो दुतियाँ जितनी ।

लोकों में और वस्तुओं में, तो तेज प्रगट उदभासित है,

उन सकल ज्योतियों में अर्जुन, उसका ही तेज प्रकाशित है।

 

सम्पूर्ण जगत यह दिपता है, केवल उससे पाकर प्रकाश,

जो तेज अग्नि में, सूरज में, उससे ही पाता है विकास ।

तम वहाँ न कभी ठहर पाता, जो तेज ज्ञान का रुप रहा,

परमात्मा चेतन ज्ञान रहा, वह चेतन बोध-स्वरुप रहा ।

 

वह एकमेव जग-जीवन में, जो ज्ञेय ज्ञान का जो स्वरुप,

जीवन में उसको जान सके, कर बैठे मनुज न कहीं चूक ।

हृदयों में वास विशेष रहा, ज्ञानी उसके सँग-सँग डोले,

होता है प्रिय का मिलन उसे, उर-अन्तर के जो पट खोले ।

 

सबके हृदयों में वास करे, जाने उसको जानन हारा,

वह विषय ज्ञान का, ज्ञान लक्ष्य, वह अन्धकार हरने वाला ।

अज्ञान न उसको छू सकता, अज्ञान न ठहर सके आगे,

वह ज्ञान, ज्ञेय, परमात्मा है, जागे उसमें जन-मन जागे ।

 

दे शक्ति दाह की पावक को, शशि करता अमृत की वर्षा,

रवि से जग का व्यवहार चले, घन में चमके जो विद्युत सा ।

आँखों की जो आँखें बनता, जो बने श्रवण के लिए श्रवण,

जो वाचा को वाचा बनता, जो प्राणों का बनता जीवन ।

 

जो जीवों का भी जीव रहा, जो मन का भी बन रहता मन,

क्रिया का जो कर्त्ता बनता, गतिशील रखे जो बढ़े चरण ।

आकार प्राप्त आकार करे, विस्तार अधिक विस्तृत होता,

अपने स्वरुप को पा लेता, रुबरु ज्ञेय से जो होता ! क्रमशः….