‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 146 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 146 वी कड़ी ..

               त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’

अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’

श्लोक  (१४)

गोचर का मूल स्त्रोत होकर, वह रहित-इन्द्रियों से रहता,

पालक वह सभी प्राणियों का, लेकिन वह निरासक्त रहता ।

वह परे गुणों से माया के, फिर भी है वह स्वामी उनका,

प्राकृत उसका आकार नहीं, पर संरक्षक है वह सबका ।

 

वह रहित इन्द्रियों से फिर भी, इन्द्रिय विषयों का भोग करे,

धारण करता, पोषण करता, लेकिन न कहीं आसक्ति रखे ।

वह रहा अतीत गुणों से पर, वह सभी गुणों का भोग करे,

यह रही अलौकिकता उसकी, जो निर्गुण ज्ञेय स्वरुप धरे ।

 

उस ज्ञेय रुप परमात्मा का, अर्जुन है अद्भुत रुप सगुण,

वह नहीं अन्य जीवों जैसा, करता है हाथ-पैर धारण ।

वह हाथ-पैर से रहित रहे, पर चले, करे करतब सारे,

वह रहित इन्द्रियों से फिर भी, विषयों के रस भोगे सारे ।

 

वह चले वेग से बिन पग के, कर बिन वह कर्म करे सारे,

वाचाल बने बिन वाणी के, आनन बिन रस भोगे सारे ।

वह श्रवण रहित सुनता बातें, वह नयन रहित देखे जग को,

 

सब कुछ वह देखें, सुने, करे, सारा व्यवहार सुलभ उसको ।

देखों अर्जुन वह ज्ञेय तत्व, नभ में जैसे अवकाश बसे,

ज्यों तन्तु, वस्त्र में, वस्त्र रुप, ज्यों रस जल में जल रुप रहे ।

ज्यों तेज, दीप में दीप रुप, ज्यों इत्र रुप में हो सुवास,

वह क्रिया देह है देहों की, चंचल जल में जल का प्रवाह ।

 

सोना या उसके अलंकार, सोना ही होते हैं अर्जुन,

जब रुप नष्ट हो जाता है, वह स्वर्ण, रबा रह जाता बन ।

जल की लहरें टेढ़ी-मेढ़ी, पर जल तो आखिर जल ही है,

सारा प्रभाव है माया का, जो ज्ञेय रहा वह अविचल है।

 

आकार-प्रकार रहे कुछ भी, पर गुड़ में होती ही मिठास,

पय में घृत रहे समाया पर, घृत नहीं रहा पय का विलास ।

आकार, रुप, सम्बन्ध, जाति, गुण-दोष, ब्रम्ह से विलग रहे,

इन्द्रिय-गुण आदि विवर्तन से, माया जग ही आकार गहे ।

 

लेकिन वह भासित है जग में, दर्पण में ज्यों प्रतिबिम्ब बना,

वह इन्द्रिय-गुण आकार नहीं, जग बनकर रहे विकार घना ।

वह अविकारी लेकिन विकार-यह विश्व, उसी में भरा हुआ,

ज्यों विविध रुप बहु कृतियों में, सोना आभूषण बना हुआ

 

याद मेघ गगन में दाख रहे, तो क्या धारण कर रहा गगन?

या दीख रही जो प्रतिछाया, क्या उसे धारता है दर्पण?

निर्गुण परमात्मा ऐसा ही, गुण को धारण करता दीखे,

गंजे को अपने सिर पर ज्यों, सपने में केशराशि दीखे ।

 

शारीरिक आँख नहीं उसको, लेकिन वह सब कुछ देख रहा,

शारीरिक कान नहीं फिर भी, उससे न कहा अनसुना रहा।

मन सीमित नहीं पास उसके, वह मन की सब बातें जाने,

उसकी विशालता, क्षमता को, जो जाने वह ऐसा माने ।

श्लोक   (१५)

वह परम सत्य नारायण प्रभु, सर्वत्र व्याप्त बाहर-भीतर,

सूक्ष्माति सूक्ष्म ओझल रहता, वह परे इन्द्रियों के जीकर ।

वैकुण्ठ वास करने वाला, रहता है वह अत्यंत दूर,

फिर भी अत्यंत निकट सबके, उनके जो लेते उसे ढूँढ ।

 

परिपूर्ण चराचर हैं उससे, उसमें सब भूत रहे अविकल,

चट्टान बर्फ की सागर में, भीतर-बाहर ज्यों जल ही जल ।

परमात्मा का ही जग स्वरुप, जग भिन्न नहीं परमात्मा से,

अति सूक्ष्म रहा वह दिखे नहीं, श्रद्धालु समीप पाते उसे ।

 

वे पाते हैं अति दूर उसे, जिनके मन में संशय रहता,

आस्थाविहीन चाहे भी तो, वह उसको कभी नहीं मिलता ।

वह एक भाव रखता सब पर, गन्ना ज्यों पोर-पोर मीठा,

या अलग-अलग तट-कूलों पर, प्रतिबिम्बित शशि समान दीखा।

 

जारज, अंडज, स्वेदज, उद्भिज, सबमें वह पूर्ण रुप बसता,

होता न विभाजन कुछ उसमें, वह नहीं विखण्डित हो रहता ।

शक्कर का स्वाद समान रहे, इस बोरी या उस बोरी की,

माला में गूंथ रखे सबको, है बात अलग उस डोरी की ।

 

वह अटल रहा, वह रहा चलित, वह दृश्य रहा, दृग भी वह ही,

उसका जाना जाना दुरुह, प्रिय को जनवा देता खुद ही ।

वह रहा निकटतम हो अभिन्न, वह दूर कि पाना कठिन रहा,

यों तो ब्रह्माण्ड किए धारण, पर सूक्ष्म, न देखा कहीं गया । क्रमशः….