त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’
अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’
श्लोक (१३)
उस परमात्मा के हाथ, पैर मुख, कान, नेत्र सब ओर रहे,
परिव्याप्त किए वह अखिल भुवन, वह अखिल भुवन में व्याप्त रहे।
परमात्मा के आश्रय में ही, रहते हैं जीव कि जीवात्मा,
परमेश्वर सीमा रहित रहा, पर सीमित रहता जीवात्मा ।
सब तरफ हाथ उसके फैले, सब तरफ पैरवाला है वह,
अर्पित हर वस्तु ग्रहण करता, स्वीकार करे पग पूजन वह ।
सब ओर नेत्र, सिर मुख उसका, सब कुछ उसको दिखलाई दे,
अक्षत चन्दन वह, ग्रहण करे, वह दिया भोग स्वीकार करे ।
सब ओर कान, सबकी सुनता, करता वह कोई भेद नहीं,
कोई न जगह खाली उससे, वह ज्ञेय तत्व है सभी कहीं ।
जग जीवन समूह चराचर यह, उसमें ही आश्रय पाता है,
है वही तत्व जो जड़ चेतन के कण-कण में भर जाता है।
सब जगह हाथ अरु पैर रहे, वह दौड़े मदद करे सबकी,
आँखे सब ओर रहीं उसकी, कोई न बात उससे छिपती ।
सिर मुख सब ओर रहे उसके, हर ओर दिखे मुख से बोले,
अपनी छवि से वह मन मोहे, अपने स्वर में अमृत घोले ।
उसके हैं कान दिशाओं में सुनता है वह सबकी पुकार,
सुन टेर, दौड़कर मदद करे, खेकर पहुँचाता तरणि पार ।
आवृत करके सबको रखता, संसार समाया है उसमें,
कोई न जगह खाली उससे, वह व्याप रहा जड़-चेतन में।
दर्शक प्रकाश के बिन अनुभव, कोई न किसी को हो सकता,
है लोकातीत एक गुण तो, गुण रहा दूसरा व्यापितता ।
इसलिए विरोधाभासी स्वर, कड़ियों पर कड़ियाँ गढ़े चले,
वह भीतर है, वह बाहर है, वह दूर-पास, चल अचल रहे ।
जब प्रकृति गुणों से युक्त रहे, आत्मा क्षेत्रज्ञ कहाता है,
जब मुक्त गुणों से हो जाता, वह परमात्मा हो जाता है।
वह अन्त समस्त शून्यता का, कहते हैं जिसको परम ब्रह्म,
जो व्याप्य और व्यापक पद में, मैं ही हूँ अजुन नहीं अन्य ।
सत्ता स्वरुप जो ज्ञेय वही, सारे जग में परिव्याप्त रहा,
सब देशों में, सब कालों में, जड़-चेतन में वह व्याप्त रहा ।
भौतिक हो या हो सूक्ष्म क्रिया, उसका आदेश बजाती है,
वह विश्व-बाहु, करनी उसको, कोई न कठिन रह पाती है
सर्वत्र सदा अरु एक साथ, हर वस्तु प्राप्त वह करा रहा,
जग की आकांक्षा पूर्ति हेतु, उसका पालन अविराम चला।
सबसे ऊँचा, सबसे महान, वह रहा विश्वमूर्धा बनकर,
सक्रिय, उदार, तोषक, पोषक, उससे न रहा कोई बढ़कर ।
जो रुप अग्नि का वही वदन, जो मुंह में आया भस्म करे,
है ज्ञेय विश्वतोमुख अर्जुन, जो सब कुछ का उपभोग करे ।
वह पुरुष सहस्त्रशीर्षा अनूप, प्रस्तुत करता नव समाधान,
वह विश्वत् नेत्रों से सींचे, करुणा बनकर करुणानिधान । क्रमशः….