त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’
अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’
श्लोक (११)
करने स्वरुप साक्षात्कार दृढ़ निष्ठा नित्य रहे जिसकी
पाने को परम सत्य उत्सुक, अन्वेषण की प्रवृत्ति जिसकी ।
घोषित करता मैं इन्हें ज्ञान, ये तत्व ज्ञान के बीस रहे,
वह सब अज्ञान इतर इनसे, जो कुछ भी हो विपरीत रहे ।
अध्यात्म ज्ञान है चेतन का, अज्ञान रहा जड़ नाशवान,
प्रभु ही सर्वत्र दिखाई दे, होता है जिसको तत्वज्ञान ।
हिंसा क्रोधादि मलिनता से, करते रहते मन को मैला,
अज्ञान जहाँ पलता पुसता, उस मन में ज्ञान नहीं ठहरा ।
वह अमानित्व अदम्भीपन, वह क्षमा अहिंसा वह आर्जन,
वह शौच आत्मनिग्रह, विरक्ति, वह सद्गुरु सेवा का पालन ।
निग्रह वह रहा इन्द्रियों का, वह रहा पार्थ मन का संयम,
सुख-दुख में एक समान चित्त वह है ममत्व का निर्बंधन ।
वह अनहंकार, नश्वर जग का, वह चिन्तन मनन सचेत भाव,
सुत दारा धन गृह से विराग-जग से न रहे कोई लगाव ।
वह युक्त योग, वह अटल भक्ति, वह है विविक्त थल का सेवन,
जन संसद से दूरी, सदैव-अध्यात्म तत्व का वह धारण चिन्तन वर्तन ।
छल कपट द्वेष अरु दर्प- दम्भ, हिंसा अशौच अरु बैर भाव,
यशमान बड़ाई की लिप्सा, अस्थिरता, लोलुपता दुराव ।
ममता आसक्ति अश्रद्धा रति, वैषम्य द्रोह, दुर्मति कुसंग,
ये हेतुभूत अवननि के हैं, अज्ञान रुप ये विविध अंग ।
अभिमान, कपट, छल, हिंसा का, अज्ञान किया करता प्रसार,
रहती न सरलता पूज्य भाव संयम का हो जाता अभाव ।
अस्थिरता अनियंत्रण बढ़ता, विघटित पवित्रता हो जाती,
गहराती है आपा-धापी, समरसता दह में खो जाती ।
बढ़ती बुराईयाँ, भय बढ़ता, जीवन सारा होता कुरुप,
निर्बल मन कम्पित रहे सदा, अंगारे झरती उसे धूप ।
जकड़े जीवन को राग-द्वेष, बन्धन पर बढ़ जाते बन्धन,
आसक्ति बढ़ाये पीड़ा को, बस उसे घेर लेता क्रन्दन ।
विक्षिप्त चित की दशा रहे, दीखे न अन्त बाधाओं का,
आधारहीन निस्सहाय, पल प्रतिपल पथ पर घबराता ।
बढ़ता रहता नित असंतोष, आँखों के आगे अन्धकार,
निर्जन में मानो चीख रहा, कोई न सुने जिसकी पुकार ।
नैतिक गुण सम्पादित करता, ज्ञानी जो धारण करे ज्ञान,
प्रतिबिम्बित आत्मा का प्रकाश, करता जीवन को भासमान ।
साक्षी बनकर सबको देखे, आसक्ति किसी से नहीं रखे,
नश्वर रुपों की चल हलचल, उसको न प्रभावित कभी करे ।
सर्वत्र व्याप्त परमात्मा को, वह खुली आँख देखा करता,
स्वर्गादिक सुख-भोगों को वह, अतिशय नगण्य लेखा करता ।
ध्रुवतारा जैसा आत्मज्ञान, उसके मन में चमका करता,
वह ज्ञान दृष्टि से ज्ञेय तत्व, उर-अन्तस में हेरा करता ।
श्लोक (१२)
अर्जुन अब यह बतलाऊँगा, वह क्या है जो जाना जाए,
इसलिए कि जानने पर जिसके, अमृतमय जीवन हो जाए ।
वह पार ब्रह्म परमात्मा है, जिसका कोई है आदि नहीं,
जो रहा नहीं अस्तित्ववान, अस्तित्वहीन जो रहा नहीं ।
ये आदि-अन्त के गम्य छोर, इनसे वह परे अगम्य रहा,
पाकर उसको हम पा लेते, पाया वह अति अल्पांश रहा ।
हैं जन्म-मृत्यु ये घटनायें, जो उसे नहीं छूने पातीं,
वह रही नित्यता आत्मा की निःशेष न जो होने पाती ।
यदि कोई कहता रहा न ‘वहः तो विश्व रुप में क्यों दिखता?
माना कि विश्व का रुप ‘वहीं’, तो वह कैसे माया बनता?
ये पंच महाभूतादि तत्त्व, कैसे आए, यदि वह न रहा?
‘है’ अथवा ‘नहीं’ विवाद व्यर्थ, वह अधिष्ठान, वह व्याप्त रहा ।
जो रहा जानने योग्य ‘ज्ञेय’, उसके बारे में बतलाऊँ,
क्षेत्रज्ञ जीव, क्षेत्रज्ञ विभू, उनका अन्तर मैं समझाऊँ ।
यह ज्ञानामृत आस्वादन का, दोनों अनादि आश्रित मेरे,
हैं परे कार्य-कारण के वे, हैं जीव-ब्रह्मआश्रित मेरे
होता है परमानन्द प्राप्त, जब ज्ञेय जान लेता कोई,
अर्जुन वह तत्व रहा कैसा, बतलाता हूँ अब उसको ही ।
पर ब्राह्म न उसको सत मानो, उसको न असत ही कह सकते,
वह है अनादि, साधन कोई, उसको न बाँह में गह सकते।
‘सत’वस्तु प्रमाणों द्वारा जो, हो सके प्रमाणित कहलाता,
पर परमात्मा जो स्वयं सिद्धि, उस तक न प्रमाण पहुंच पाता।
जिसका होता अस्तित्व नहीं, कहते हैं ‘असत’ उसे अर्जुन,
पर परमात्मा अस्तित्ववान, साधे है जो सबका जीवन । क्रमशः….