त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’
अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’
श्लोक (७)
सत्कार करे कोई अपना, ऐसी न अपेक्षा हो मन में,
देहात्म बुद्धि से उठ ऊपर, साधे विनम्रता जीवन में ।
पालन जो करे अहिंसा का, पीड़ा न किसी को पहुँचाये,
हो दम्म भाव से रहित सदा, जो निरभिमानता पा जाये ।
अभियान श्रेष्ठता का न करे, जीवों को कष्ट न पहुँचाए,
रख क्षमाभाव, मीठी वाणी, गुरु सेवा का व्रत अपनाए ।
भीतर बाहर से हो पवित्र, इन्द्रिय निग्रह, मन का संयम,
विकृतियों से बचकर रहता, जीता जो शुद्ध सरल जीवन ।
अभ्यास करे जो सहने का, अपमान, अनादर, तिरस्कार,
जागा करता जिसके मन में, सबके प्रति अपनापन उदार ।
मन-वाणी से जो नपा तुला, व्यवहार सरल सीधा रखता,
सद्गुरु का पादाश्रय पाकर, जो सेवा भाव निरत रहता ।
श्लोक (८)
ईमानदार, दाता, सहिष्णु, छल-कपट रहित जो शुद्ध धीर,
जो आत्मनिष्ठ, निर्मल मति का, पूज्यों के प्रति जो विनय शील।
इन्द्रिय विषयों से जो विरक्त, जग से जिसको ममता न मोह,
जीवन उत्थान-पतन इनमें, जो निहित दीखते उसे दोष ।
शुचिता का जो करता पालन, दृढ़ निश्चय अविचल भाव रहे,
हो आत्म निग्रही वीर व्रती, प्रतिकूल पदार्थ न ग्रहण करे ।
इन्द्रिय भोगों से अनासक्त, मिथ्याभिमान से दूर सदा,
जो जन्म-मृत्यु अरु जरा व्याधि में आत्म परीक्षण युक्त रहा ।
रहा कष्टप्रद जन्म, यन्त्रणा, जन्मकाल की असह रही,
मरणकाल भी पीड़ामय है, मृत्यु न सुख से गई सही ।
नेत्र निराशा भरे, हीनमन, शिथिल इन्द्रियाँ तन जर्जर,
दीनावस्था ग्रस्त बुढ़ापा, कष्ट झेलता रहे असह होकर ।
व्याधि भरी जीवन की लीला, पराधीन निरुपाय दशा,
इसमें जितना लिप्त रहा मन, उतना फन्दे में उलझा ।
इतना ज्ञान जिसे रहता है, वह न जगत में लिप्त हुआ,
जागृत रही विरक्ति भावना, वह न पार्थ सविकार हुआ
श्लोक (९-१०)
सन्तति, पत्नी, घर द्वार वार, इनसे ममता न लगाव रखे,
समभाव रहे परिणाम भले, अनुकूल या कि प्रतिकूल रहे ।
हो इष्ट प्राप्ति या हो अनिष्ट, पर शुद्ध भक्ति मुझमें अविचल,
एकान्त वास हो प्रिय जिसको, विषयी जन से जो रहे विलग । क्रमशः….