‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 143 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 143 वी कड़ी ..

               त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’

अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’

श्लोक  (७)

सत्कार करे कोई अपना, ऐसी न अपेक्षा हो मन में,

देहात्म बुद्धि से उठ ऊपर, साधे विनम्रता जीवन में ।

पालन जो करे अहिंसा का, पीड़ा न किसी को पहुँचाये,

हो दम्म भाव से रहित सदा, जो निरभिमानता पा जाये ।

 

अभियान श्रेष्ठता का न करे, जीवों को कष्ट न पहुँचाए,

रख क्षमाभाव, मीठी वाणी, गुरु सेवा का व्रत अपनाए ।

भीतर बाहर से हो पवित्र, इन्द्रिय निग्रह, मन का संयम,

विकृतियों से बचकर रहता, जीता जो शुद्ध सरल जीवन ।

 

अभ्यास करे जो सहने का, अपमान, अनादर, तिरस्कार,

जागा करता जिसके मन में, सबके प्रति अपनापन उदार ।

मन-वाणी से जो नपा तुला, व्यवहार सरल सीधा रखता,

सद्गुरु का पादाश्रय पाकर, जो सेवा भाव निरत रहता ।

श्लोक   (८)

ईमानदार, दाता, सहिष्णु, छल-कपट रहित जो शुद्ध धीर,

जो आत्मनिष्ठ, निर्मल मति का, पूज्यों के प्रति जो विनय शील।

इन्द्रिय विषयों से जो विरक्त, जग से जिसको ममता न मोह,

जीवन उत्थान-पतन इनमें, जो निहित दीखते उसे दोष ।

 

शुचिता का जो करता पालन, दृढ़ निश्चय अविचल भाव रहे,

हो आत्म निग्रही वीर व्रती, प्रतिकूल पदार्थ न ग्रहण करे ।

इन्द्रिय भोगों से अनासक्त, मिथ्याभिमान से दूर सदा,

जो जन्म-मृत्यु अरु जरा व्याधि में आत्म परीक्षण युक्त रहा ।

 

रहा कष्टप्रद जन्म, यन्त्रणा, जन्मकाल की असह रही,

मरणकाल भी पीड़ामय है, मृत्यु न सुख से गई सही ।

नेत्र निराशा भरे, हीनमन, शिथिल इन्द्रियाँ तन जर्जर,

दीनावस्था ग्रस्त बुढ़ापा, कष्ट झेलता रहे असह होकर ।

 

व्याधि भरी जीवन की लीला, पराधीन निरुपाय दशा,

इसमें जितना लिप्त रहा मन, उतना फन्दे में उलझा ।

इतना ज्ञान जिसे रहता है, वह न जगत में लिप्त हुआ,

जागृत रही विरक्ति भावना, वह न पार्थ सविकार हुआ

श्लोक   (९-१०)

सन्तति, पत्नी, घर द्वार वार, इनसे ममता न लगाव रखे,

समभाव रहे परिणाम भले, अनुकूल या कि प्रतिकूल रहे ।

हो इष्ट प्राप्ति या हो अनिष्ट, पर शुद्ध भक्ति मुझमें अविचल,

एकान्त वास हो प्रिय जिसको, विषयी जन से जो रहे विलग । क्रमशः….