त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’
अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’
श्लोक (६)
मानव शरीर यह क्षेत्र रहा, होता यह सविकारी अर्जुन,
इच्छा सुख-दुख अरु राग-द्वेष, उत्पन्न करे मानव का मन ।
धृति और चेतना अन्तर्हित, ये सूक्ष्य देह जीवन-लक्षण,
ऊद्रव, विकास, थिति, प्रजनन, क्षय, अरु अन्त, विकारों का है क्रम।
अनुभव की अन्तर्वस्तु रहे, अवयव ये रहे क्षेत्र के ही,
चौबीस सांख्य के मूल तत्व, ये वस्तु रुप के भेद सभी ।
तन रुप इन्द्रियों के सारे, पहिचान बनाते कर्ता की,
कृत्रिम रचना है अहंकार, चेतन से पृथक जगा करती ।
पर रहे चेतना वही सदा, जो दर्शन करने वाली है,
उससे आलोकित नील गगन, या रहे फूल की लाली है।
कितने ही वस्तु-रुप हो पर सबमें उसकी ही रहे आभ,
आलोकित करता रुपों को, होता केवल वह ही प्रकाश ।
सविकारा हाता रह क्षेत्र, कारण बनती मन की रुझान,
जो विषय ज्ञान का बनती है, लेकर अपना नूतन विहान ।
कर्ता जो जाननहार रहा, उसको पदार्थ या वस्तु करे,
यह कार्य अविद्या करती है, मन में गहरा अज्ञान भरे ।
भर जाता वस्तु-जगत सारा, कर्त्ता उस जग में खो जाता,
बाहर निकले, करता प्रयत्न, पर जग उसको जकड़े जाता ।
घुलना जग में स्वीकार नहीं, इस कारण कष्ट बढ़े उसका,
सहमत होता, हट जाता दुख, संघर्ष-विराम रहे चलता ।
प्रतिरोध करे उत्पन्न कष्ट, सहमति से होता ज्ञान लुप्त,
बस रहे अविद्या का प्रसार, बन्दी हो अथवा जीव मुक्त ।
करना होता संघर्ष सतत्, अपना स्वरुप पाना होता,
दुख कष्टों की वह राह रही, जिससे होकर जाना होता ।
ऐसा ही सांख्यकारिका में, मिलता है प्रकृति भाव वर्णन,
उस जैसा ही उच्चार रहा, अपना मन्तव्य योग दर्शन ।
कहते हैं मूल प्रकृति जिसको, उसमें न विकार कोई होता,
वह प्रकृति अविकृत-प्रकृति रही, विकृत में पर प्रसार होता ।
ये रहे प्रकृति के सात तत्व, जिनसे होता सारा विकार,
ये रहीं पाँच तन्मात्राएँ, अरु महत्तत्व अरु अहंकार ।
पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच-कर्मेन्द्रिय, पंच महाभूत, इनसे जुड़ मन,
ये सोलह विकृत-प्रकृति रहे, इनका विकार है जग-जीवन ।
पानीन्द्रय, पच कमन्द्रिय, अरु मन ये ग्यारह एक वर्ग,
जो अहंकार के वश में रह, संपादित करता कर्म सर्व ।
जो कार्य पंच तन्मात्रा के, उनके विकार हैं पंचभूत,
पर पुरुष न कार्य न कारण है, वह इन दोनों के परे मूक।
चौबीस मूल तत्वों को ज्यों, बतलाता सांख्य योग दर्शन,
निर्मित होते हैं रुप विविध, होता दृश्यों का रहे सृजन ।
इन दृश्यों को ही श्री मुख से, राजन बतलाया गया क्षेत्र,
जो प्रकृति जन्य रहता अनित्य, क्षेत्रज्ञ पुरुष पर निरापेक्ष ।
ये महाभूत तन मात्राएँ, विषयों के सहित इन्द्रियाँ सब,
मन, बुद्धि प्रकृति, अरु अहंकार, सुख-दुख अरु द्वेष भावना सब ।
संघात, चेतना, धृति, इच्छा, आपस में करते हैं वर्तन,
संसार बसे, उजड़े इनसे, होता रहता प्रत्यावर्तन ।
क्षण भंगुर प्राकृत वस्तु क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ कि ज्ञाता भिन्न रहा,
वह रहा क्षेत्र का स्वामी भी, वह चेतन अंश अभिन्न रहा ।
अरु पार्थ ज्ञान के जो साधन, दिग्दर्शन उनका करवाता,
गह लेता है जो ज्ञान मार्ग, वह परम सत्य को पा जाता ।
जिनको सुखकारक समझ रहा, या दुख नाशक समझे जिनको,
मानव पदार्थ के पाने की, इच्छा से भर लेता मन को ।
यह रही वासना या आशा, या स्पृहा, लालसा कही गई,
इच्छा के रुप अनेक रहे, जो चिति का प्रमुख विकार रही।
जिनका दुख का कारण समझ, या सुख-बाधक समझे जिनको,
उनमें विरोध की बुद्धि रखे, विद्वेष भाव ग्रस ले मन को ।
वह द्वेष बैर का रुप रखे, या ईर्ष्या, घृणा क्रोध बनता,
यह द्वेष, प्रधान विकार रहा, जो विविध रुप धारण करता ।
प्रतिकूल मिले, अनुकूल मिटे, अन्तस होता जिससे व्याकुल,
यह भी विकार भावित करता, बनकर रहता जो व्यापक दुख ।
जो पंचतत्व की बनी देह, चेतन विहीन जो पिण्ड रहा,
संघात विकार विशेष वहीं, जो चेतन का अधिवास रहा ।
अन्तस की वृत्ति विशेष एक, जो रही क्षेत्र का बन विकार,
वह प्राण चेतना-जीवात्मा, जिससे सम्भव सारा प्रसार ।
धृति सात्विक अंश विचारों का यह भी अन्तस का है विकार,
आधार सभी का क्षेत्र रहा, वह सबका करता वहन भार । क्रमशः….