त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’
अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’
श्लोक (2)
क्षेत्रों का याने देहों का, जो जानकार, क्षेत्रज्ञ वही,
मैं सब देहों को जान रहा, मैं ही अर्जुन क्षेत्रज्ञ सही ।
जो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञों को, इस तरह जानता, ज्ञान रहा,
ऐसा मेरा मत है अर्जुन, आत्मा संग मेरा वास रहा ।
कहते जिसको क्षेत्रज्ञ पार्थ, वह क्षेत्रों का करता पोषण,
वह पोषण कर्ता मैं ही हूँ, ऐसा कहते हैं, ज्ञानी जन ।
क्या क्षेत्र, क्षेत्र का क्या स्वरुप, क्षेत्रज्ञ कौन का जिसे ज्ञान,
दोनों को जिसने पहिचाना, कौन्तेय रहा वह सही ज्ञान।
हे भारत तू सब क्षत्रा म, केवल मुझको क्षेत्रज्ञ जान,
क्षेत्रज्ञ-क्षेत्र को जो जाने, मैं समझें उसको सही ज्ञान ।
मनुज नहीं है अंश प्रकृति का, वह आत्मा का अंश रहा,
प्रकृति रही सविकारी विघटित, वह अविकारी पुरुष रहा ।
आत्मा परमात्मा में न भेद, आभास प्रकृति के कारण है,
जीवात्माओं के विविध रुप, में, प्रभु का रुप उजागर है।
अज्ञान भाव के कारण ही, क्षेत्रज्ञ-क्षेत्र लगते समान,
पर दोनों के गुण-धर्म अलग, जाने जो उसका सही ज्ञान ।
उत्पत्ति-विनाश धर्मवाला, जो क्षेत्र अनित्य क्षणिक रहता,
लेकिन क्षेत्रज्ञ रहा चेतन, अविकारी शुद्ध नित्य रहता ।
अति रहे विलक्षण ये दोनों, दिखलाई देते हैं समान,
अज्ञान रहा इसका कारण, ज्ञानी पा लेता है निदान ।
श्लोक (३)
जिसको कहते है क्षेत्र पार्थ, इसका स्वरुप होता कैसा?
इसमें विकार क्या कैसे हैं, क्या हेतु प्रयोजन है कैसा?
अरु जो क्षेत्रज्ञ रहा कैसा, उसका स्वरुप कैसा रहता?
कैसा प्रभाव होता उसका, यह सब अब मैं तुझसे कहता ।
श्लोक (४)
जीवात्मा परमात्मा अभेद या उनमें कोई भेद रहा,
तत्वज्ञ ज्ञानियों ने इस पर, नाना रुपों में बहुत कहा ।
वैदिक मन्त्रों में वर्णित ये, वेदान्त सूत्र में व्याख्याति,
सिद्धांत कार्य-कारण का जो, ऋषियों द्वारा यह प्रतिपादित ।
यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तत्व, ऋषियों ने बहुविध इसे कहा,
इसकी नाना व्याख्यायें की, मन्त्रों में इसका सार भरा ।
कितना विस्तार विभाग सहित, वेदों वेदांगों में आता,
संपादित ब्रह्म सूत्र में वह, थोड़े में वह,मैं दुहराता ।
श्लोक (५)
पृथ्वी जल अग्नि पवन अम्बर, हैं अहंकार के प्रगट रुप,
इनसे है रचित जगत सारा, जग कार्य कि कारण महाभूत ।
इनके सिवाय मन बुद्धि चित्त, इन्द्रियाँ समग्र, तन्मात्राएँ,
चौबीस तत्व संघात करें, तन में विकार नव उपजाएँ । क्रमशः….