द्वादशोऽध्यायः – ‘भक्तियोग’
‘व्यक्तिक भगवान की पूजा, परमब्रह्म की उपासना की अपेक्षा अधिक अच्छी है’
श्लोक (१०)
यदि पाता है असमर्थ पार्थ, अभ्यास योग के साधन में,
कर मेरे लिए कर्म केवल, इतना निश्चत कर ले मन में
मेरे निमित्त कर्मो को कर, तू सिद्ध काम हो जायेगा,
फल रहा सिद्धि का उसको तू मेरे स्वरुप को पायेगा ।
यदि भक्ति योग के पालन का, अभ्यास न विधिवत कर पाए,
तो मेरे प्रति अपने सारे, कर्मों को तू करता जाए ।
मेरे प्रति कर्म करेगा तो, तू निश्चित मुझको पायेगा,
मुझको पाने की सिद्धि पार्थ, कर प्राप्त सफल हो जायेगा।
मुझको पाने का सुगम मार्ग, कर्मो का करना है अर्जुन,
यह किसी अंश में निम्न नहीं, कमतर न किसी से यह साधन ।
अपना आश्रय, अपनी गति, श्रद्धा से मुझको मान रहा,
उसने जो कर्म किया मेरा, वह उसका मेरा कर्म रहा ।
अभ्यास योग यदि कठिन लगे, जिसके हो सकते हैं कारण,
तो एक मात्र मेरी सेवा का, व्रत कर ले मन में धारण ।
परिचित होकर वास्तविकता से कर कर्मो का मुझको अर्पण,
इतने साधन से सिद्धि प्राप्त हो जायेगी तुझको अर्जुन ।
कर सकते अभ्यास नहीं तो, जैसा क्रम है वही रखो,
विहित कर्म जो रहे तुम्हारे, मनोयोग से वही करो ।
लेकिन मन से और वचन से, बनो न कर्मो के कर्त्ता
केवल जाने परमात्मा ही, कौन रहा कर्त्ता धर्ता ।
सहज भाव से बहता पानी, जहाँ बहे बह जाने दो,
अपने सिर पर कर्त्तापन का, बोझ न रंचक आने दो ।
क्या रथ ऊँचे-नीचे पथ की चिन्ता लेकर है चलता?
जाता उधर सारथी उसको, लेकर जिधर-जिधर चलना ।
करते हो जो कर्म करो पर सौंपो जगत नियन्ता को,
अपने सब कर्मो को अर्पित कर दो उस भगवन्ता को ।
बना मदारी नचा रहा है जीवों को जो नाच यहाँ,
उसकी इच्छा मेट सके जो, इतना है सामर्थ्य कहाँ?
श्लोक (११)
यदि बुद्धि योग से युक्त हुआ, तू कर्म नहीं करने पाए,
या बुद्धि योग के पालन में, तुझको कुछ कठिनाई आए ।
तो आत्मरुप में एक चित्त, होकर कर अपने कर्म सभी,
फल की न कामना कर मन में, वे बनें मुक्ति का हेतु सभी ।
इतना भी यदि कर सके नहीं, तो मेरे अनुशासन में आ,
मेरी गतिविधि का आश्रय ले, सच्चे मन से मेरा हो जा।
कर्मो के फल की इच्छा का, कर दे तू पूर्ण त्याग अर्जुन,
बन्धनकारी न रहा ऐसे, योगी के जीवन का वर्तन ।
आस्था परमात्मा में रखकर, पाते हम उसका संरक्षण,
कर्मों के फल की इच्छा तज, धारण कर उसका अनुशासन ।
कर सकते हैं निष्काम कर्म, यदि कर्म समर्पित नहीं किए,
वे योगी भी अर्जुन जग में, बन्धन से मुक्त स्वतन्त्र जिए ।
ये कर्मयोग के रुप रहे, सब कर्मो का प्रभु को अर्पण,
या करना प्रभु के लिए कर्म, कर उसकी आज्ञा का पालन ।
या त्याग कर्म के फल का, कि जग में ईश्वर को पाना है,
यह एक लक्ष्य, पाने इसको, विधियाँ विभिन्न हो जाना है।
करता जो कर्मो का अर्पण, प्रभु की बनता वह कठपुतली,
जो कर्म किए जाते इससे, उसमें केवल प्रभु की मरजी ।
परमात्मा कर्म करा उससे, अपनी इच्छा पूरी करता,
उसका कर्मों या कर्मफलों से, रहा नहीं अपना नाता
जो प्रभु के लिए कर्म करता, होता है उसका सोच भिन्न,
प्रभु को वह समझे परम पूज्य, ले भक्ति भाव उसमें अनन्य ।
तत्परता से उसकी सेवा, उसकी आज्ञा का परिपालन,
प्रभु के निमित्त वह कर्म करे, दृढ़ भाव किए मन में धारण ।
जो कर्म फलों को त्याग करे अरु निरासक्त हो करे कर्म,
वह नहीं सोचता है ऐसा कि प्रभु करवायें सभी कर्म ।
या प्रभु के लिए कर्म करने को, उसका अपना धर्म कहे,
उसका अधिकार कर्म में हैं, फल उसका दैवाधीन रहे ।
ये रहे तीन साधन अर्जुन, सबका फल किन्तु समान रहा,
साधक वह साधन अपनाता, जो सुगम उसे अनुकूल रहा ।
तज देता राग-द्वेष साधक, परमात्मा को पा जाता है,
कोई न न्यून या बढ़ साधन, साधक जिसको अपनाता है। क्रमशः….