‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 112 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 112 वी कड़ी ..

                        दशमोऽध्याय – ‘विभूति योग’

अध्याय दस – ‘परमात्मा सबका मूल है’  ‘उसे जान लेना सबकुछ जान लेना है’

श्लोक   (४,५)

जीवों के भाव अभावों का, हे अर्जुन मैं ही हूँ कारण,

मैं कारण ज्ञान बुद्धि का हूँ, सम्मोह मुक्ति का मैं कारण ।

कारण मैं क्षमा सत्य का हूँ, शम दम का कारण हूँ मैं ही,

सुख-दुख का जन्म-मरण का भी, भय अभय भाव-कारण मैं ही।

 

कारण मैं रहा अहिंसा का, समता का कारण मुझे जान,

तप-तुष्टि दान का कारण भी, हे अर्जुन केवल मुझे मान ।

यश-अयश, अशान्ति शान्ति मन की, होती है सब मेरे कारण,

जीवों के भाव-अभावों की, संरचना सब मेरे कारण

 

अर्जुन यदि तुमको उत्कण्ठा, मैं कैसा, मेरे क्या विकार,

तो सुनो प्रकृति जिसकी जैसी, मेरा वैसा बनता विकार ।

कोटानुकोटि जो रहे भूत, उनके भावों का मैं कारण,

कुछ को संज्ञान रहे मेरा, कुछ कर न सकें उसको धारण् ।

 

सूरज से ज्यों फैले प्रकाश, सूरज से ही है अँधियारा,

आए, छा जाए दिन-प्रकाश, जाए, दे जाए तम-कारा ।

कर्मो के फल अनुकूल रहें, वे जीव जान लेते मुझको,

प्रतिकूल रहे जीवन भर वे, पहिचान नहीं पाते मुझको ।

 

दुख और कष्ट जग जीवन के, रचता उनको जग का स्वामी,

प्रतिफलित सभी व्यवहार करे, घट घट वासी अन्तर्यामी ।

जो अलग दशाएँ जीवों की, गढ़ता है पिछला कर्म उन्हें,

परमात्मा पड़े न द्वन्द्वों में, केवल दिखलाए राह उन्हें

 

नाना कर्मो के नाना फल, उत्पन्न हुए नाना विकार,

मुझ अन्तर्यामी में जग के, कर्मो का चलता है प्रसार ।

जो भाव प्राणियों के बनते, वे सब मुझमें ही बनते हैं,

मेरी सहायता शक्ति और सत्ता के आश्रित चलते हैं ।

श्लोक  (६)

सारे महर्षिगण, सप्त ऋषि, इनके पहिले सनकादि चार,

फिर चौदह मनु मन्वन्तर के, पच्चीस सृष्टि के सूत्रधार ।

ये सभी प्रजापति भजते हैं, मेरा ही करते हैं चिंतन,

सारा जग, जग की प्रजा सभी, विधि आज्ञा पर चलती अर्जुन ।

 

सारा संसार प्रजा जिनकी, वे सब मुझसे उत्पन्न हुए,

जो हिरण्य गर्भ से थे जन्मे, वे प्रथम पुरुष ब्रह्मा निकले ।

ब्रह्मा से सात महर्षि हुए, उनके पीछे सनकादि चार,

फिर चौदह मनु मन्वन्तर के, पच्चीस प्रजापति हुए साथ ।

 

ब्रह्माण्ड लोक के सब प्राणी, सन्तान प्रजापति की बनते,

ब्रह्माण्ड असंख्य, असंख्य लोक, ब्रह्माण्ड एक में हैं बसते ।

ब्रह्मा के दिव्य हजार वर्ष, यह अवधि घोर तप करने की,

पूरी कर ज्ञान प्राप्त करता, विधि अपनी सृष्टि विरचने की।

 

ये रहीं शक्तियाँ सृजन भार, धारण करतीं सारे जग का,

इनमें मनु पहिले पुरुष हुए, प्रारंभ जहाँ मानव कुल का ।

मन से उत्पत्ति हुई जिनकी, वे रहे महर्षि प्रवर अर्जुन,

फिर विकसित सारा विश्व हुआ, ज्यों पत्र पुष्प फल तरु वर्धन ।

 

पहिले मैं ही मैं था केवल, फिर मुझसे मन उत्पन्न हुआ,

मन से ही सात ऋषी जन्मे, अरु सनकादिक का जन्म हुआ ।

उत्पन्न हुए फिर लोकपाल, इन्द्रादि प्रजापालक जन्में,

विस्तृत हो चला जगत मेरा, श्रद्धालु पुरुष इसको समझे ।

 

रहता है बीज अकेला ही, जो बढ़ते बढ़ते बढ़ता है,

पहिले उसकी जड़ जमती है, फिर पौधा उस पर सधता है।

जड़ से फूटा करते अंकुर, शाखायें फिर बढ़ चलती हैं,

किशलय पल्लव फल-फूलों से, वे शाखायें भर चलती हैं

 

बढ़ जाता पूरी वृदा का जाना जाता है,

वह रहा बीज जिससे उदभव,यह वृहत वृक्ष पा जाता है।

मैं ही वह एक बीज अर्जुन,जो विश्वरुप तरु बन जाता,

बनते-मिटते रहते तरु दल, क्रम बीजों का चलता जाता । क्रमशः…