दशमोऽध्याय – ‘विभूति योग’
अध्याय दस – ‘परमात्मा सबका मूल है’ ‘उसे जान लेना सबकुछ जान लेना है’
श्लोक (१)
श्री भगवानुवाचः-
अर्जुन तुम खरे कसौटी पर, मालिक तुम ज्ञान खजाने के,
पुनि पुनि सौंपूँ चिन्तामणियाँ, अधिकारी हो तुम पाने के ।
मुझ पर है तेरा प्रेम अधिक, इसलिए चाहता हित तेरा,
माला के मनकों को मैंने, इस कारण है फिर फिर फेरा ।
जो बात कही अब तक तुझसे, मैं उसको फिर दुहराता हूँ,
लेकिन ढंग होगा फिर नवीन, वह गूढ तत्व समझाता हूँ।
वह मेरा परम रहस्य रहा, जिसकी तुझसे करना चर्चा,
तू है सुपात्र गहरी अभिरुचि, जो मेरे वचनों में, रखता ।
मेरी बातों में रुचि लेता इसलिए तुझे फिर बतलाता,
हित चाहू तेरा सदा पार्थ, इसलिए रहस्य को सुलझाता ।
हे महाबाहु तू प्रिय मुझको, तेरे प्रति मेरे रहे वचन,
दे ध्यान प्रकारान्तर से जो, कहता हूँ उन बातों को सुन ।
भगवान कृष्ण ने कहा सखे, मम परम वचन आगे भी सुन,
जो तुझे समझकर अपना प्रिय, करने तेरा हित-संवर्धन ।
अर्जुन मैं तेरे प्रति कहता, जिनमें तेरा कल्याण निहित,
अरु जिन वचनों को सुनकर तू होगा रे अतिशय आनन्दित ।
श्लोक (२)
ऐश्वर्यपूर्ण मेरा उदभव, कोई न बता सकता अर्जुन,
इसको न महर्षि बता सकते, इसको न जानते हैं सुरगण ।
इसलिए कि कारणों का कारण, देवों का हूँ मैं आदि बीज,
हूँ आदि बीज महर्षियों का, मैं आदि बीज से हूँ अतीत ।
क्या रहे हेतु क्या रुप रहे, मेरी लीला का पार नहीं,
साधारण जन क्या जानेंगे, सुरगण जब रहे समर्थ नहीं ।
उदरस्थ गर्भ क्या जानेगा, आयु कितनी उसकी माँ की?
क्या मसक नापने पाता है, सीमा फैले विस्तृत नभ की?
इसका न पार पाए महर्षि, जो स्वामी ज्ञान अतीन्द्रिय के,
मैं कौन, कहाँ उत्पन्न हुआ, जाना किसने युग-युग बीते?
देवों, महर्षियों का अर्जुन, सब जीवों का मैं मूल रहा,
अमलक वत रहा हथेली पर, यह विश्व सकल फल-फूल रहा।
पर्वत से गिरा हुआ पानी, क्या ऊपर को चढ़ पाता है?
या पेड़ जड़ों की ओर किए मुँह, भीतर बढ़ता जाता है?
या सारा वृक्ष गोंद से अपनी, ढकता, जो उससे रिसती?
या लहर सिन्धु की होती, यों जो सारा सागर-जल पीती?
मुझसे उत्पन्न जगत सारा, मैं नित्य, अजन्मा स्वामी हूँ,
सब दृश्यमान के पहिले था, मैं दृश्यमान में अब भी हूँ।
मेरा गौरव अभिव्यक्त हुआ, इस दृश्यमान सारे जग में,
जिसका है कोई अंत नहीं, सब यात्री चलते उस मग में ।
रुद्रों, वसुओं, आदित्यों का, कारण मैं रहा प्रजापति का,
उन्चास मरुद्रण का कारण, धन्वन्तरि का मैं सुरपति का ।
मैं सात महिर्षयों का कारण, ये सब मुझसे उत्पन्न हुए,
बल, विद्या, बुद्धि, तेज, धन, गुण, पाकर मुझसे सम्पन्न हुए।
श्लोक (३)
जो मुझे अजन्मा, जन्म रहित, जाने अनादि ईश्वर जग का,
वह रहा श्रेष्ठ नर ज्ञानवान, जो अपने पाप स्वयं हरता ।
प्रभु का प्रभाव ही फूट रहा, जीवन-जग में जड़ चेतन में,
होता है श्रेष्ठ पुरुष अर्जुन, जो देखे-धारे यह मन में ।
भ्रम उसका दूर हुआ समझो, वह मर्त्यलोक में मुक्त रहे,
मेरे स्वरुप को आँके जो, सब लोकों का स्वामी समझे ।
रुक जाती खोजबीन सारी, वास्तविकता यदि हम पहिचानें,
हर वस्तु उसी का रुप रही, इतना सीखें, इतना जानें,
जैसे पत्थर में पारस है, या रस में है अमृत जैसे,
यह जीव-जगत जो भासमान, वह अंश रहा मेरा वैसे ।
वह चलती-फिरती ज्ञानमूर्ति, अंकुर है सुख रुपी तरु का,
लौकिक जो दृष्टि रही उस पर, है माया का पर्दा पड़ता।
मिसरी में हीरा मिल जाए, तो मिसरी गलती पानी में,
हीरा बच रहता मिल जाता, मन जब फँसता हैरानी में।
रहता है मरणशील जग में, यों वह मनुष्य साधारण बन,
माया-बाधा से मुक्त रहे, वह तत्व रहा निर्मल चेतन ।
मैं हूँ सब लोकों का स्वामी, परमेश्वर हूँ मैं तत्व अगम,
मेरा न हुआ है जन्म कभी, मेरा न कहीं कोई उद्द्रम
जिसने इस तरह मुझे जाना, वह रहा मनुष्यों में ज्ञानी,
वह मुक्त रहा सब पापों से, वह रहा श्रेष्ठ सबसे प्राणी । क्रमशः…