‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 110 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 110 वी कड़ी ..

                        नवमो ऽध्यायः – ‘राज गुहययोग’

अध्याय नौ – ‘राजविद्या राजमुख्य योग’ सबसे बड़ा ज्ञान/रहस्य, ‘भगवान अपनी सष्टि से बड़ा है’

श्लोक  (३२)

जो भक्ति भाव धारण करके, कौन्तेय शरण मेरी आता,

कोई भी हो बिन भेदभाव, वह मेरा परम धाम पाता ।

चाहे वह पाप योनि का हो, या तमोगुणी उसका वर्तन,

पापात्मा हो या हो नारी, या वैश्य शूद्र सबका तर्पण ।

 

करती रहती नामोच्चार, मेरा अविरल जिनकी वाणी,

मेरा ही रुप दृष्टि देखे, संकल्पवान हो जो प्राणी ।

मेरे अतिरिक्त न बुद्धि कहीं, मेरे अतिरिक्त न कहीं ध्यान,

सब सौंप चुका हो जो मुझको, अपना अभिन्न आधार मान

 

हो पाप योनि का भले मगर, वह मुझको प्यारा है अर्जुन,

नरसिंह अवतार लिया मैंने, प्रहलाद रहा जिसका कारण ।

सच्चा हो भक्ति भाव मन में, वह साधक मुझको पा जाता,

कुल जाति वर्ग या वर्ण भेद, इसमें न कभी आड़े आता ।

 

जब तक न अग्नि का साथ हुआ, लकड़ी चन्दन या खैर रही,

राजाज्ञा अंकित हुई जहाँ, वहा वस्तु स्वर्ण से हुई बड़ी ।

कोई भी हेतु रहे उनका, जो आता शरण, मुक्ति पाता,

हो बैर बुद्धि या विषयबुद्धि, सबका मैं रहा मुक्ति दाता ।

श्लोक  (३३)

फिर उनके प्रति क्या कहने को, जो ब्राह्मण पुण्य परायण हैं,

राजर्षि भक्तगण जिन सबका, मेरे प्रति पूर्ण समर्पण है ।

इसलिए पार्थ क्षण भंगुर तन, सुख रहित जगत में रहकर तू,

बस भक्ति भावना भावित हो, एकाग्र चित्त मुझको भज तू ।

 

जन्मों-जन्मों की कालख से, काला भविष्य सब हो आया,

सांसारिक धन्धों में फंसकर, जिनका मन दुर्बल हो आया ।

वे जीत सकें दुर्बलता को, सब से ऊँचा पद पा जायें,

आध्यात्मिक जिनकी वृत्ति रही, वे क्या इसको दुष्कर पायें?

 

संसार एक पुल जैसा है, इससे उस पार गुजर जाओ,

मत अटक रहो आधे मग में, घर बना न इस पर बस जाओ ।

यह कार्य सुगम होता उनको, जिनकी आध्यात्मिक वृत्ति रही,

व्यवहार रहा सीधा सच्चा, अरु निर्मल जिनकी दृष्टि रही ।

 

संसार नहीं हर प्रगति चरण, हर पहलू मानव जीवन का,

प्रावस्था विश्व प्रक्रिया की, बनता मिटता सपना मन का ।

बचपन यौवन वृद्धावस्था, इनकी अपनी अपनी रुचियाँ,

पुल एक रहा जिसके ऊपर, बनतीं मिटती कितनी पुलियाँ ।

 

गह लेते मेरी शरण पार्थ, पामर, चाण्डाल, दुराचारी,

पा जाते भक्ति भाव मेरा, गति सुधर गई होती सारी ।

जो पुण्यशील ब्राह्मण तपसी, राजर्षि रहे जो ज्ञानवान,

उनको तो सहज सुलभ रहता, बैकुण्ठ कि मेरा परम धाम ।

श्लोक  (३४)

तू नित्य निरंतर चिंतन कर, मेरे स्वरुप का हे अर्जुन,

पर तत्व रहा पुरुषोत्तम मैं, कर भक्ति भाव परिपूरित मन ।

मेरा कर पूजन, कर प्रणाम, तू पूर्ण रुप तन्मय हो जा,

रे प्राप्त करेगा मुझको ही, हे अर्जुन तू मुझमें खो जा ।

 

मुझमें मनवाला हो जा तू, मेरा तू परम भक्त बन जा,

मुझको प्रणाम कर श्रद्धा से, पूजन करने वाला हो जा ।

आत्मा में मुझको कर नियुक्त, कर चल तू मेरा पारायण,

हो जा तू मुझको प्राप्त अभी, सारे संशय तज दे अर्जुन ।

 

परमात्मा में केन्द्रित कर दें, हम अपनी बौद्धिक शक्ति सभी,

संकल्पात्मक या वेगात्मक मन की क्षमताएँ निहित सभी ।

हो जायेगा रूपान्तरण, अस्तित्व समूचा बदलेगा,

एकत्व आत्मा का जितना सम्भव है ऊँचा उठ लेगा

 

मुझको उर में आसीन करो, परिपूर्ण प्रेम से हो जाओ,

तल्लीन भाव गुणगान करो, सर्वत्र मुझे देखो, पाओ

संकल्प विकल्प तजो मन के, केन्द्रित कर डालो मन मुझमें,

मेरा स्वरुप पाओ अर्जुन, अस्तित्व विसर्जित कर मुझमें ।

।卐। इति राज गुहययोगः नामे नवमोऽध्यायः ।卐।